abhivainjana


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Sunday, 30 October 2011

वक्त


   
१-        वक्त सर पर बैठा
      टुकड़े- टुकड़े कर जिन्दगी ले रहा
      कर्ज़ तो चुकानी ही है
      वक्त से जो ली है
      हमने जिन्दगी उधार में

२-       वक्त की बाँहो में जकड़ी है हर सांस
      हर सांस लेते सोचते हैं
      नजाने कौन सी अंतिम लिखी  है..
                  
३-       पहाड़ो में अब बर्फ पिघलने लगा
     घाटियों में फूल खिलने लगे
     हवाओ में खुशबू फैलने  लगी
     नदियों में पानी बहने लगा
     लेकिन बीते वक्त का दर्द
      महकते फूलों  में आज भी है

                    ४-     पानी के बूँद के गिरने से गूँज सी उठती है
     दबे पाँव चलने से कुछ आहट तो होती  है
     लेकिन मेरे वक्त का एक-एक कतरा गिरा
      मुझे पता भी चला………..
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Tuesday, 25 October 2011

दीया


दीया एक शरीर है, बाती उसकी आत्मा , तेल ,धड़कता हुआ दिल  । जिस दिन तेल खत्म होजाए यानी दिल धड़कना बंद कर दे..उस दिन बाती रुपी आत्मा कहीं विलीन हो जायेगी | बस ये नश्वर दीया रूपी शरीर फिर मिट्टी की मिट्टी…

मैं स्वयं जल कर लोगों को उजाला बाँटती हूँ.. फिर भी जब लोग कहते हैं ‘दीया तले अँधेरा”
मैं समझ नहीं पाती , सच में उन्हें मुझ से सहानुभूति है या फिर मेरी बेबसी का मजाक उड़ाते हैं ….

बेटा माँ से पूछता है ..माँ रात को सूरज क्यों छिप जाता है ?
माँ- बेटा ! जगमगाते दीये की सुन्दर शीतल रौशनी से शर्माता है शायद ,इसीलिए छिप जाता है ।

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Sunday, 16 October 2011

खामोशी

खामोशी


एक दिन ..
खामोशी से  ऊब कर मैंने पूछा
तुम इतनी खामोश कैसे रह लेती हो
तुम्हारा कोई संगी साथी नहीं है.?
उसने धीरे से कहा ..हैं..न..
उदासी और अकेलापन..
मैंने समझाते हुए फिर कहा..
तुम इनके साथ सारी जिन्दगी
कैसे गुजार सकती हो..?
बाहर निकलो, और दुनिया देखो
सब तरफ रिश्तों की भीड़ लगी हैं
अहसासों का बाजा़र सजा है
जो चाहो  पा सकती हो……..
कुछ सोच … उसने पूछा
क्या मुझे वहाँ शान्ति और सूकून
भी मिल सकता हैं..???
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Sunday, 9 October 2011

हथेली पर जान लेके चलने वाले



हथेली पर जान लेके चलने वाले
तूफ़ां से भला कहाँ डरते हैं
हिम्मत का पतवार थामे वे
अपनी राह खुद बना लेते हैं

बिजली बन कर बाधाओ पर
बेखौफ हो  टूट पड़ते हैं
मन में भर कर विश्वास
अग्नि पथ पर वे बढ़ते हैं

न कोसते किस्मत को वे
बिगड़ी खुद बना लेते हैं
दर्द से भरी हर लकीर को वे
खुद हाथों से मिटा देते हैं

धैर्य की भट्टी में तप कर वे
लोहे को मोम बना देते हैं
चल कर तलवार की धार पर
नया इतिहास रचा लेते हैं

हथेली पर जान लेके चलने वाले
तूफ़ां से भला कहाँ डरते हैं..
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Saturday, 1 October 2011

मुझे ये हक दे दो माँ...



मुझे ये हक दे दो  माँ..


तेरी कोख को मैंने है चुना
मुझे निराश न करना माँ
जीने का हक देकर मुझको
उपकार इतना तुम करना माँ

अहसास मुझे है तेरे दुख का
तू जमाने से न कभी डरना
कोई कुछ भी कहता रहे,पर
हिम्मत  कभी न हारना

मुझे पता है मन ही मन
मुझे बहुत चाह्ती हो माँ
फिर क्यों कभी तुम इतनी
बेबस मज़बूर हो जाती ,माँ

मै तो तुम्हारी ही अक्स हूँ
  कैसे मुझे मिटा सकती हो  ?
 मै तो हूँ धड़कन तुम्हारी माँ
  मुझे कैसे भूला सकती हो  ?

कभी  समझना न बोझ मुझे
मैं सहारा बन कर आऊँगी  
छँट जाएँगे दुख के बादल
जब खुशियाँ  भर कर लाऊँगी

मेरे आ जाने से घर में माँ
कोई खर्च न होगा  ज्यादा
तू निश्चित रहकर देखना  
 तेरी अजन्मी बेटी का ये वादा

बचा-कूचा जो तुम  दोगी
वही खुशी-खुशी  खा लूँगी
उतरन पहन सब दीदी के
भाग्य पर मैं इठलाऊँगी

  मुझको भी जीने का हक है न ?
फिर मुझे ये हक दे दो  माँ
ममता के आँचल में अपनी
मुझ को भी तुम ले लो माँ

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