जीवन में कई बसंत सी खिली मैं
कई पतझड़ सी झरी मैं
कई बार गिरी
गिर कर उठी
मन में हौसला लिए
जीवन पथ पर बढ़ी
मैं बढ़ती रही, चलती रही ।
कभी मोम बन पिघलती रही
कभी बाती बन जलती रही
मन में अनंत अहसास संजोए
मैं बढ़ती रही, चलती रही ।
कई बार फूलों की चाह में
काँटों को भी गले लगाया मैंने
और ,कई बार तो
फूलों ने ही उलझाया मुझको
लेकिन..
हर बार दो अदृश्य हाथों ने संभाला मुझको
मैं बढ़ती रही,चलती रही ।
पीछे मुड़ कर देखने का वक्त कहाँ..
वक्त बदलता गया
मान्यताए बदलती रही
अपनी ही अनुभव की गठरी संभाले
मैं बढ़ती रही, चलती रही
कब तक और चलना है ? कौन जाने
शायद चलना ही जीवन है
इसीलिए…
मैं चलती रही, बस चलती रही ……..
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