“कह- मुकरी”एक बहुत ही पुरातन और लुप्तप्राय: काव्य विधा है! हज़रत अमीर खुसरो द्वारा विकसित इस विधा पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्तरीय काव्य-सृजन किया है..
"कह-मुकरी" अर्थात ’कह कर मुकर जाना’
! ये अत्यंत लालित्यपूर्ण और चुलबुली सी लोकविधा
है
वास्तव में इस विधा में दो सखियों के बीच का संवाद निहित होता है, जहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ कहती है, जिसपर दूसरी सखी बूझती हुई पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है तो पहली सखी बड़ी चालाकी से इनकार कर (अपने इशारों से मुकर कर किसी अन्य सामान्य सी चीज़ की तरफ इशारा कर देती है.
मैं भी
इस विधा
को
सीखने और जानने का प्रयास कर रही हूँ मेरा
यह
पहला
प्रयास
है
कह मुकरियाँ
(१)
प्रेम बूँद वो भर कर लाते
तपित मन की प्यास बुझाते
मन मयूर है उस पर पागल
क्या सखि साजन्, ना सखि बादल
(२)
दूर खड़ा वो मुझको ताके
कभी कभी खिड़की से झाँके
प्यारा सा वो निर्लज बंदा
क्या सखि साजन,ना सखि चंदा
(३)
आशा की नव किरण जगाता
स्फूर्ति नई भर कर लाता
देख उसे शुरु हो दिन मेरा
क्या सखि साजन्, ना सखि सवेरा
(४)
काँटो के संग मिल मुस्काता
खुशबू से वो जग भर जाता
रंग रंग उसका लाजवाब
क्या सखि साजन्, ना सखि गुलाब
(५)
नैनों में वो बसता मेरे
उस बिन सब श्रृंगार अधूरे
शीतल जैसे गंगा का जल
का सखि साजन ? ना सखि काजल
(६)
संग संग चलते वो मेरे
झूम झूम कदमों को घेरे
दीवाना मुझ पर है कायल
का सखि साजन ? ना सखि पायल
(७)
मंद मंद चलता मुस्काता
सुरभित वो सब जग कर जाता
आने से खिल जाता है मन
का सखि साजन ? ना सखि पवन
(८)
अमूल्य पर, अजब है नाता
यही धरा का जीवन दाता
इसकी महिमा गाते ज्ञानी
का सखि साजन ? ना सखि पानी
(९)
तपित हिये जब मेरा तरसे
नेह बूँद बन झर झर बरसे
देख चातक सा मन है हर्षा
का सखि साजन ? ना सखि वर्षा
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महेश्वरी कनेरी