abhivainjana


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Saturday, 24 September 2011

नौनिहाल. ....


नौनिहाल. ....

पड़ोसन के बच्चे को
मिट्टी खाते देख मैं बोली
बहन जी ! आप का बेटा
मिट्टी खा रहा है....
बहन जी बोली ,खाने दो
किसी का क्या जा रहा है
मैं फिर बोली....
मेरे बेटे को भी खिला रहा है
बहन जी बोली, तो क्या ?
मिल बाँट कर खाने की
 आदत डाल रहा है
फिर कुटिल मुस्कान लिए बोली
आज ये मिट्टी खा रहे हैं
आगे चल इन्हें
बहुत कुछ खाना है
कन्ट्रेक्टर,इंजिनीयर बने तो
ईट सीमेंट लोहा सभी  
इन्हीं के पेट में तो जाना है
अपना देश अपनी धरती है
घूंस खाए या कुछ और
अपना ही तो खाएंगे
मै तो कहती हूँ
बाप से एक कदम आगे बढ़ जा
और नेता बन जा
सफेद कपड़े पहन,
काले नीले धंधे करना
घोटाले पर घोटाला कर
 सारा देश ही खा जाना
कह वो अंदर चली गई
पर मैं सोचती ही रह गई....
दूध की जगह बच्चों को हम ,
ये कैसी घुट्टी पिला रहे हैं ?
क्या होगा इन नौनिहालों का
जो इस माहौल में
 पल बढ़ रहे हैं.........
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Tuesday, 20 September 2011

बिलखता बचपन


बिलखता बचपन

धूल मिट्टी में सने
ये  धरती के लाल
आँखो में है उदासी
उलझे-उलझे से बाल
 पेट है खाली-खाली
मन में भरा जज्बात
हाथों की आड़ी तिरछी लकीरे
भाग्य को देते हैं मात
खाने खेलने की उम्र में
मेहनत करते दिन रात
मेहनत की कमाई
जब गिनने बैठते
छीन कर ले जाता
उनका शराबी बाप
रोते बिलखते….
फिर…अगली सुबह
चल पड़ते………….बचपन तलाशते
सड़कों में, चौराहों में
न जाने कहाँ-कहाँ
बिखरे हुए हैं
ये मासूम से सौगात
कह दो ,कह दो कोई
देश के इन ठेकेदारों से
जो करते ,विकास की बात
बचपन जहाँ बिलख रहा हो
 वहाँ
कैसे पनप सकता है, विकास
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Saturday, 17 September 2011

अलविदा

अलविदा
एक शाख ज़ोर-जो़र से
हवा में
हाथ हिला रही थी
पता नहीं
पास बुला रही थी
या फिर
अलविदा कह रही थी
दूसरे दिन देखा.
वो शाख वहाँ  नहीं थी
शोर सुन बाहर आई
देखा….
मौहल्ले के कुछ शरारती बच्चें
उसे घसीटते लिए जा रहे थे
मैं देखती रही..
सिर्फ देखती रही……..
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Monday, 12 September 2011

वो जीना चाहता है......

वो जीना चाहता है
सफर के इस संध्या में
चलते-चलते, लगता है
.थक गई हूँ
कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं
साँस थमने लगती है
सोचती हूँ .. बस
यहीं रुक जाऊँ ,सुस्ताऊँ
तभी मेरी नन्हीं सी पोती
मेरा हाथ थामे
मेरे कानों में कुछ कहती है
और मैं ,मंत्रमुग्ध सी
 फिर चलने लगती हूँ
बिना रुके बिना थके…
बस यही एक अनुभूति,
प्यार की ,स्पर्श की
जो डूबते मन में
आस- विश्वास भर देता है
और
जीने की चाह जगा देता है
शायद ……
 आने वाला कल
 बीते हुए कल का सपना है
 उसे हमेशा पुष्पित और
 पल्ल्वित होते देखना चाहता है
 इसी लिए
 अतीत बन कर ही सही
 पर वो जीना चाहता है
   वो जीना चाहता है………….
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Friday, 2 September 2011

पगडंडी


पगडंडी


   दबी हुई ,कुचली हुई
बेबस लाचार
उदास सी एक पगडंडी
राहगीरों को पनघट
तक ले जाती
उनकी प्यास बुझाती
खुद प्यासी रह जाती
रोज़ टूटती ,रोज़ बिखरती
सोच-सोच रह जाती
मेरा भी घर होता
चाहने वाला होता
फिर यूँ मैं ,इस तरह
न रौंदी न कुचली जाती ….
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