एक साँझ |
सूरज ,अपनी स्वणिम किरणों को समेटे
पश्चिम दिशा की ओर धीरे- धीरे ढलता
उम्मीदों का सूर्ख रंग नभ में बिखेरे
मानो कह रहा हो …
“कल मैं फिर आऊँगा”
चौंच में दाना दबाए,घोंसले की ओर उड़ते पंछी
दूर से आती किसी चरवाह की
बाँसुरी की मधुर धुन
घर वापस आते जानवरों का झुंड
गले की बजती घंटी की टुन- टुन
दुल्हन की तरह सजी साँझ
शर्माती सकुचाती
रात्रि के बाँहो में सिमटने को व्याकुल
प्रियतम के राह में बिछती
दीए की लौ और घनी होती जाती
ढलती संध्या की इस अनुपम छटा को
देखने चाँद और तारे..भी
अपना मोह न छोड़ पाए
और उन्हें निहारते रहे
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ढलती संध्या के इस अनुपम सुन्दरता को देखते हुए सोचती हूँ कि क्या जीवन की ढलती संध्या भी इतनी ही सुन्दर होती है…….?
महेश्वरी कनेरी