भले ही जिन्दगी को एक सुहाना सफर कहा जाता हो ,लेकिन इस सफर में कब क्या हो जाए कुछ पता नहीं ।पल में खुशी,पल में गम , पल में दुख ,पल में सुख । जिन्दगी को समझ पाना वाकई इतना आसान भी तो नहीं है । बस इसे ईश्वर का प्रसाद समझ , खुशी-खुशी ग्रहण करना ही हमारी नियति है, चाहे मुस्काते होठों से करें या डबडबाती आँखों से ।
मेरे जीवन में भी एक घटना ऐसी घटी जिसे मै आप सब से बाँटना चाहती हूँ। उस अद्भुत क्षण को आज भी याद करते ही मन कुछ अनमना सा और उदास हो जाता है भगवान से पूछ ही बैठती हूँ – हे ईश्वर ! इतनी बड़ी खुशी और उतना ही बड़ा दुख दोनों एक साथ मेरी झोली में क्यों डाल दी ? अगर देना ही था तो कुछ अंतराल में दे देते . मैं तो दोनों के साथ न्याय भी न कर पाई । एक तरफ तो मुझे सम्मान की वो ऊँचाई दिखा दी ( जो सब का सपना होता है )और दूसरी तरफ मेरे सिर से मेरी माँ का साया ही उठा लिया । विधि का विधान देखो जब मैं खुशियों का आसमान अपनी बाँहों में समेटे फूली न समा रही थी,तो दूसरी तरफ मेरी माँ का पार्थिव शरीर जमीन में पडा़ पथराई आँखों से मेरी राह देख रहा था ।
लगभग एक महीना पूर्व मुझे सूचना मिली कि ५ सिताम्बर २००० को अध्यापक दिवस के उपलक्ष में राष्ट्रपति अवार्ड से मुझे सम्मानित किया जा रहा है। सारा घर खुशियों के माहोल में डूब गया । मुझे मेरे मित्रों और विद्यालय अधिकारियों से बधाइयाँ मिलने लगी । मै मन ही मन बहुत खुश थी और अपने स्वर्गीय पिता जी को ये सम्मान समर्पित करना चाहती थी । उन्हीं की दी हुई शिक्षा संस्कार और जीवन के अमूल्य अनुभव, जिनका ये परिणाम स्वरुप था । आज होते तो कितना खुश होते ।वे मुझे हमेशा कहा करते “तू बेटी नही ,मेरा बेटा है “। मैं भी उनके इस आशा को बनाए रखने की पूरी कोशिश करती रहती ।
पिता के मृत्यु के बाद माँ अकेली होगई थी ,इसलिये हम उन्हें अपने साथ ले आये । शूगर और ब्लड्प्रेशर जैसे बीमारी से जूझती माँ को जब पता चला कि मैं दिल्ली राष्ट्रपति अवार्ड लेने जारही हूँ तो वे बहुत खुश होगई ।बार बार उनका एक ही रट था मैं तूझे अवार्ड लेते टी.वी. में देखूँगी ।
२ सितम्बर को माँ को हरिद्वार अपनी छोटी बहन के पास छोड़ कर मै अपने पति के साथ दिल्ली रवाना हुई । दिल्ली पहुँच कर भारत के विभिन्न विद्यालयों से आए अघ्यापक और अघ्यापिकाओं से मिल कर बहुत खुशी हुई । इतना सम्मान और आदर मिल रहा था कि मैं थोड़ी देर के लिए तो खुद पर गर्व करने लगी थी ।
दिनांक ३ को दिल्ली दर्शन ४ को ग्रेन्ड रिहर्सल में दिन निकल गया पता भी नहीं चला ।,उधर मेरी माँ अपनी बेटी को टी.वी. मे देखने की चाह लिए जिन्दगी और मौत से लड़ रही थी ।उन दिनों मोबाईल फोन का प्रचलन नहीं था। दिनांक ४ की शाम को मेरे पति ने एस. टी. डी. जाकर हरिद्वार फोन मिलाया । बार –बार मिलाने पर भी जब किसी ने नहीं उठाया तो उनका माथा ठनका और देहरादून फोन करने पर पता चला कि आज ही सुबह वे हम सब को अकेला छोड़ हमेशा के लिये चली गयी । उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके प्राण,उनके अपने ही घर पर निकले, उनकी इसी इच्छा को पूरी करने के लिए उन्हें उन के निवास स्थान देहरादून में लाया गया ।
जब मेरे पति को सारी घटना का पता चला तो दुखी होने के साथ –साथ वे धर्म संकट में भी पड़ गए कि ये दुखद समाचार मुझे बताए या नहीं, मेरी खुशी ,मेरा उत्साह मेरा सपना जिसे तोड़ कर अचानक उसे दुख और संताप में बदल डालने की हिम्मत नहीं जुटा पारहे थे । इन्होंने सोचा समाहरोह के समाप्त होते ही सब बता देंगे। लेकिन वे अपना उदास चेहरा और बैचेनी मुझ से अधिक देर तक छिपा नहीं पाये। रात को खाना खाने के बाद मेरे बार –बार पूछ्ने पर उन्हें बताना ही पडा़ ।सब कुछ बताने के बाद मुझे ऐसे देखने लगे ,मानो कोई बच्चा चोरी करते हुए पकड़ा गया हो…।
अगली सुबह दिनांक ५ सितम्बर को सम्मान समारोह में ठीक नौ बजे पहुँचना था । मैं रात भर रोती रही । सुबह सूरज की पहली किरण को देख मैं समझ नहीं पारही थी कि वे मेरे साथ खुशियाँ बाँटने और मुझे बधाई देने आए है या दुख की इस घड़ी में मेरे साथ शोक में शामिल होने । बड़ी विकट मन स्थिति से गुजर रही थी मैं…
मेरे पति पूरे समय एस.टी.डी.में ही वहाँ की और यहाँ की भी स्थिति सम्भाले हुये थे । सब ने यही सलाह दी कि अगर अभी सुबह ही समारोह छोड़ कर देहरादून को रवाना होते है तो शाम तक ही पहुँच पाएंगे ,अगर समारोह में भाग लेकर आज रात की ट्रेन पकड़ते है तो सुबह पहुँच जाएँगे । जो भी क्रिया-कर्म होगा वो सुबह ही होगा । अंत में सभी की राय और ईश्वर इच्छा मान कर भारी मन से समारोह में जाने के लिए तैयार हुई ।
बार बार माँ का चेहरा आँखों के सामने आता रहा और मैं बाहर से मुस्काती रही । कैसा अद्भूत पल था वो.. जब मैं जीवन की सच्चाई से लड़ रही थी । कार्य-क्रम समाप्त होते ही हम जल्दी से रेलवे स्टेशन पहुँच गये । अगली सुबह जैसे जैसे हम घर के नजदीक पहुँच रहे थे , दिल की धड़कने और तेज़ होती जारही थी। दूर से ही लोगों की भीड़ दिखाई देने लगी । आस-पास के लोग ,नाते रिश्तेदार सभी पहुँच चुके थे बस हमारा ही इंतजार था । किसी तरह गिरते पड़ते मैं माँ के पार्थिव शरीर के करीब पहुँची । सफेद साड़ी में लिपटी हुई , बेहद शान्त चेहरा, मानो थक हार कर अभी-अभी सोई हों । दुख- दर्द से दूर ,मोह माया के बँधन को तोड़ कही दूर… दूसरी ही दुनिया में चली गयी थी। शरीर जरूर यहाँ था , लेकिन आत्मा तो पहले ही परमात्मा में विलीन हो चुका था
थोड़ी देर में माँ की अन्तिम यात्रा की तैयारी होने लगी । मुझे याद है माँ अकेलेपन से बहुत घबराती थीं , लेकिन अपनी यात्रा पथ पर उस दिन वे अकेली ही चल पड़ी थी…”राम नाम सत्य है…” की गूँज ने वातावरण को और भी अधिक गमगीन बना दिया था । मन जो़र-जो़र से दहाड़े मार कर रोने को कर रहा था , लेकिन किसी तरह अपने आप को रोक कर अन्य काम में खुद को व्यस्त कर रही थी
अब दबे शब्दों में कुछ लोग पूछने भी लगे थे-“ दिल्ली का प्रोग्राम कैसा रहा ? अच्छा किया अटेन्ड कर लिया नहीं तो अफसोस ही रहता ”……..पर मैं तो आज भी समझ नही पारही हूँ.. मैंने सही किया या गलत……. पर ईश्वर ने जो भी किया , ठीक ही होगा…शायद यही मेरी नियति भी थी… ……….लेकिन आज मुझे ऐसा लग रहा है ,आप लोगों के सम्मुख दिल खोल देने से मन बहुत हलका हो गया है……….. बहुत-बहुत धन्यवाद………..
ईश्वर मेरे माता-पिता की आत्मा को शान्ति दें…………
मेरे पूज्यनीय माता-पिता |