तुम्हें याद है न..
कभी तुम्हारे अंदर एक गाँव बसा करता
था
लहलहाते खेतों की ताज़गी लिए
भोला भाला,सीधा साधा सा गाँव
और उसी गाँव में मेरा भी घर हुआ करता
था
मिट्टी से लिपा हुआ भीनी भीनी खुशबू
लिए
सुखद अहसासों से भरा,चन्द सपने बटोरे
एक छोटा सा प्यारा घर
पर तुम ने ये क्या किया
प्यार के इस लहलहाते खेत को
पकने से पहले ही उजाड़ दिया
और वहाँ एक शहर बसा लिया
अब तो मेरा घर भी घर न रहा
पत्थर का मकान बन गया
मुट्ठी भर सपने और वो सुखद अहसास
उसी पत्थर के नीचे कही दब कर सो गए
और मैं बेघर हो ,भटक रही हूँ
तुम्हारे इस पत्थर के शहर में..
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महेश्वरी कनेरी