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Wednesday 16 October 2013

पत्थर का शहर



तुम्हें याद है न..

कभी तुम्हारे अंदर एक गाँव बसा करता था

लहलहाते खेतों की ताज़गी लिए

भोला भाला,सीधा साधा सा गाँव

और उसी गाँव में मेरा भी घर हुआ करता था

मिट्टी से लिपा हुआ भीनी भीनी खुशबू लिए

सुखद अहसासों से भरा,चन्द सपने बटोरे

एक छोटा सा प्यारा घर

पर तुम ने ये क्या किया

प्यार के इस लहलहाते खेत को

पकने से पहले ही उजाड़ दिया

और वहाँ एक शहर बसा लिया

अब तो मेरा घर भी घर न रहा

पत्थर का मकान बन गया

मुट्ठी भर सपने और वो सुखद अहसास

उसी पत्थर के नीचे कही दब कर सो गए

और मैं बेघर हो ,भटक रही हूँ

तुम्हारे इस पत्थर के शहर में..


****************


महेश्वरी कनेरी

Friday 11 October 2013

उठो नव निर्माण करो



उठो नव  निर्माण करो

मौत का था तांडव ऐसा

आज भी

ज़र्रा-ज़र्रा काँप रहा

मातम सी खामोशी है

सहमी-सहमी सी घाटी है

जो मर गए ,वो तर गए

जीवित जो निष्प्राण ,

ठगे हुए से खड़े हैं

माना कि दर्द बहुत है

पर कब तक शोक मनाना है

समेट लो दर्द को अपने,

 और उठो….

भाग्य को फिर जगाना है

बुझ गए थे ,चूल्हे जो

उन्हें फिर जलाना है

यूँ रोने से क्या होगा ?

तुम जिन्दा हो

खुद पर विश्वास करो

नव सृजक बन ,प्राण भरो

उठो नव निर्माण करो

तिनका-तिनका चुन कर

फिर घर बसाना है

मरघट को जिन्दा कर,

धरती को सजाना है

तुम शिव हो,तुम ही शक्ति

खुद को पहचानो

जो खोया है,फिर पाओगे

थोडा धीर धरो

नव सृजक बन प्राण भरो

उठो, नव निर्माण करो

नव निर्माण करो

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महेश्वरी कनेरी

Tuesday 8 October 2013

विदा कर दिया मैंने


विदा कर दिया मैंने

कल मैंने,

सजा कर, सँवार कर

पूरे रीति रिवाजों के संग

अपनी कवितासरस अनुभूतिको

लोकार्पित कर दिया….

ताकि बाहर की दुनिया को

वो जान सके, समझ सके

और अपनी पहचान बना सके

बड़े नाजों से पाला था 

नेक संस्कारों में भी ढाला था

और कब तक सहेजती मैं

एक दिन तो जाना ही था उसे

समाज के प्रति उठे मनोभाव को

समाज को ही समर्पित कर दिया

पर कभी सोचती हूँ ..

दुनिया की इस भीड़ में

कहीं खो जाए

इसी लिए हिम्मत देती रहती 

नाहक थपेड़ों से मत घबराना


निर्मल झरने की तरह

निरंतर बहती रहना

जितना तपोगी उतना ही निखरोगी

तुम्हें और सबल ,सरस बनना है

ताकि जन-जन के हदय में

अनवरत बह सको

यही शुभकामनाओं के साथ

विदा कर दिया मैंने

अपनी लाडलीसरस अनुभूतिको..


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महेश्वरी कनेरी