वक्त की हेरा फेरी
कहने के लिए तो सफर में बहुत मिले
कुछ अपने ,कुछ पराए
न शिकवे थे न शिकायत
फिर भी..
जब होश आया
तब देखा..
कब अपने पराए हुए
और पराए कब अपने
वक्त की ये कैसी हेरा फेरी है
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तन्हाई
जब भी मन को टटोला
एक सूना पन बाहर आया
और ये कह कर मुस्काया
जिन्दगी पहुँच चुकी है
उस मुकाम पर जहाँ तन्हाई
तन्हाई सिर्फ तन्हाई
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क्यों
हँसते-हँसते क्यों आँसू निकल आते है..?
और चलते-चलते क्यों साए भी छॊड़ जाते है ?
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जिन्दगी की चाक
जिन्दगी की चाक पर
हम तो सब को अपना बनाते चले थे
लेकिन व्यवहार की भट्टी पर आते ही
सब फटने फूटने और बिखरने लगे..
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महेश्वरी कनेरी