abhivainjana


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Saturday 27 April 2013

माँ का आंचल


   माँ का आंचल 
आज माँ का आंचल 
डरा सा सहमा क्यों है ?
देकर जन्म बेटी को 
 पछताया सा क्यों है ?

प्यार दिया, दुलार दिया 
दी ममता  की छांव सघन 
पर देन सके बेटी को 
सुरक्षित एक आंगन 

एक अनजाना सा डर 
हर पल सांस अटकती  है 
 जब भी बेटी घर से 
बाहर निकलती है 

बेखौफ से घूम रहे हैं 
 ये दरिन्दे कौन हैं ?
अस्मिता  लुट रही बेटी की
क्यों कानून  यूं  मौन हैं ?

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महेश्वरी कनेरी 






 [K1]

Thursday 4 April 2013

दो वर्ष पूरे ...



दो वर्ष पूरे ....

आप लोगों के प्रेम तथा सहयोग से आज मेरे ब्लांग अभिव्यंजना को पूरे दो वर्ष हो गए हैं । देखते ही देखते समय कैसे गुजर जाता है पता ही नहीं चलता । वास्तव में मेरा ये सफर बहुत ही रोमांचक सुकून भरा तथा बहुत ही अनुभव से परिपूर्ण रहा है  और रहेगा भी क्यों नहीं जिसे आप जैसे मित्र बंधु ,प्रेरक तथा सहयोगी जनों का समय समय पर स्नेह तथा मार्ग दर्शन मिलता रहा हो...
मैं आप सभी के स्नेह और प्यार का दामन को पकड़े चल रही हूँ । आज मेरे ब्लांग के १५५ अनुसरण कर्ता हैं तथा अब तक की ९५ प्रविष्ठियों में 3272  टिप्पणियाँ हैं, जो मेरे पोस्ट की शोभा ही नहीं, बल्कि मेरी हिम्मत और हौसला भी बढ़ा रही हैं ।

   सच में मैं उन सभी जनों की शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने मेरे ब्लांग का अनुसरण कर तथा टिप्पणियों के माध्यम से समय समय पर मेरा उत्साह बढ़ाया ,  इतना ही नहीं कभी चर्चा मंच पर स्थान दिया तो कभी हलचल का हिस्सा बनाया, कभी ब्लांग बुलेटन पर तथा कभी लिंक लिंक्खाड़ पर मेरे ब्लांग को सजाया । मैं उन टीमों के  सभी सदस्यों की ह्रदय से पुन:आभार प्रकट करती हूँ..
    मेरी आप सभी से विनती है आगे भी इसी तरह स्नेह और प्रेम बनाएं रखे. ।आप सभी की दी हुई टिप्पणियों तथा सुझाव मुझे आगे बढ़ने के लिए उर्जा देती है ....
   एक बार फिर से आप सभी का पुन:आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद देती हूँ..


चल पड़ी  थी इस डगर पर कुछ
 घबराते, कुछ डरते डरते
सोचती थी पता नहीं
 मंजिल मिलेगी भी या नहीं.
पर तभी हौसलो ने मेरी अंगुली थामी और
 विश्वास ने मुझे राह दिखाया
और मैं चल पड़ी.. .....
.चलती रही....बस चलती रही ...
क्यों कि आप सभी का प्यार
 और विश्वास मेरे साथ जो है

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 महेश्वरी कनेरी  
        

Monday 1 April 2013

सतरंगी संसार

सतरंगी संसार


 आँखों में बसे हैं मेरे 

 सतरंगी एक संसार

खोल कर आँखेँ ,बिखरने दूँ कैसे,

यही तो है मेरे जीने का आधार

              महेश्वरी कनेरी