दो जोड़ी आँखें
क्या सोचती क्या ढ़ूँढ़ती
क्यों भटकती है बार-बार
थकी हारी इन आँखो में
और कितना है इंतजार
अकसर मैं सुबह छत से अपने पड़ोस में बसे उस बुजुर्ग दंपति तो देखा करती हूँ । जब-जब उन्हें देखती हूँ ,मैं जीवन के सत्य के उतनी ही करीब आती जाती हूँ।उन्हें देख मुझे उन पक्षियों की याद आती है जो तिनके चुन चुन कर अपना घरोंदा बनाते हैं, बच्चों को पालते पोसते हैं उन्हें उड़ना और जीवन से लड़ना सिखाते हैं । बच्चे जैसे ही उड़ना सीख जाते हैं ,उड़कर कहीं दूर चले जाते हैं ,अपना अलग घरोंदा बनाने ।शायद यही सच है, जीवन का सफर दो से शुरु होता है फिर बहुत से लोग आकर जुड़ने लगते हैं और अंत में फिर दो ही रह जाते हैं।
मैं पड़ोस के उस बुजुर्ग दंपति की बात कर रही थी जिनकी चार संताने हैं ,दो बेटियाँ और दो बेटे ।सभी की शादियाँ हो चुकी हैं और अच्छी नौकरी के कारण वे घर से दूर अपनी- अपनी गृहस्थी में रमे हुये हैं। इधर अकेले बूढ़े माता पिता सुबह की पहली चाय के साथ अकेलेपन के इस कटु अहसास को झुठ्लाते हुये बच्चों के आने की प्रतीक्षा में दिन की शुरुवात करते हैं।
उनकी बूढ़ी आँखों में आज भी इंतजार और उम्मीद का टिमटिमाता दीया जलता दिखाई देता है जब कि इन पाँच सालों में मैंने किसी को भी आते नहीं देखा ।आज भी इसी उम्मीद में रहते हैं, शायद कभी कोई आये, घर फिर से किलकारियों से गूँज उठे,कुछ शिकवे हों शिकायतें हों,थोड़ा प्यार हो थोड़ी फटकार हो,कभी रुठ्ना हो कभी मनाना हो और कभी हँसी के ठ्हाके हों तो कभी रोने के बहाने हों ।यही वो क्षण हैं ,जिन से जीवन को एक गति मिलती है,जीने की चाहत बढ़ती है,वरना जीवन उस विरान और सूखे रेगिस्तान की तरह होजाय जो कटते ही नहीं कटती।
आज हमारे देश के अधिकतर घरों की यही कहानी है ।चाहे शहर हो या गाँव अच्छे रोजगार, बाहरी चमक दमक ,और आरामदायक जिन्दगी की चाह में आजकल की युवा पीढ़ी घर छोड़ कर पलायन कर रहे हैं । कोई विदेशों में जाकर बस रहे हैं तो कोई महानगरों में । इतने निष्ठुर और कर्तव्यहीन होगए कि व्यस्तता और लाचारी का ढोल पीटकर ये अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ते जारहे हैं और रह जाते हैं सिर्फ दो जोड़ी बूढ़ी आँखें जिसमें इंतजार होता है बस सिर्फ इंतजार ही इंतजार………….