मिट्टी से लिपा चुल्हा
चुल्हे में सुलगती लकड़ियाँ
उसकी आँच में सिकी हुई
माँ के हाथों की
गरम रोटियाँ
बहुत याद आते हैं..वो दिन
हाँड़ी में पकती हुई दाल
सिलबट्टे में पीसे ताजे
मसालों की खुशबू
बेसब्री से करते
खाने का इंतजार
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
गर्मियों में
खुले आसमान के नीचे
छत पर सोना
किस्से कहानियों का दौर
चाँद तारों को देखते देखते
मीठे सपनों में खोजाना
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
बेफिक्र, मन मौजी से
अपनी ही दुनिया में रहना
कभी जिद्द कभी मनमानी करना
देर रात तक
छुप-छुप नावेल पढ़ना
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
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महेश्वरी कनेरी