ढूँढ़ रही मैं,
बीते वक्त के, उस कल को
छोड़ आई ,जहाँ पर
बचपन के उस पल को
हर दिन मैं बढ़ती जाती
उम्र की सीढ़ी चढ़ती जाती
और छूट रहा था बचपन पीछे
बचपन-बचपन कह पुकारती
पर पास कभी न वो आती
बस दूर खड़ी-खड़ी मुस्काती
जब मैं नन्हें हाथों से अपने
माँ की अँगुली थामे रहती
तब अकसर सोचा करती थी..
कब जल्दी बड़ी होजाऊँ
पर आज..
बडी होकर भी
मैं
वापस बचपन ढूँढ़ा करती हूँ
उम्र की ढलती इस संध्या में
यादों का दीया जला कर
मैं पगली ..
सुबह का अहसास संजोए रखती
हूँ
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महेश्वरी कनेरी