abhivainjana


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Wednesday, 31 December 2014

स्वागत नववर्ष


स्वागत नववर्ष

पन्ने पलटते गए

दिन बदलता रहा

तारीखें बदलने लगी

और साल बदल गया

बीता वर्ष यादें बन गई

कुछ खट्टी ,कुछ मीठी

हर पल इतिहास बन

ज़हन में सिमटने लगे

फिर नई- नई बात

नई सी शुरुवात

आशाएं पनपने लगी

स्वप्न बुनने लगे 

उम्मीदें जाग उठी


मन खिलने लगा 


 नई सुबह, नया उजियारा

स्वागत- स्वागत

नव वर्ष तुम्हारा

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महेश्वरी कनेरी


Tuesday, 23 December 2014

माँ के माथे की बिन्दी


माँ के माथे की बिन्दी

गोल बड़ी सी बिन्दी

कान्ति बन,माथे पर

खिलती है बिन्दी

माँ के माथे की बिन्दी

सजाती सवाँरती

पहचान बनाती बिन्दी

मान सम्मान

आस्था है बिन्दी

शीतल सहज सरल

कुछ कहती सी बिन्दी

माँ के माथे की बिन्दी

थकान मिटा,उर्जा बन

 मुस्काती बिन्दी

पावन पवित्र सतित्व की

 साक्षी है बिन्दी

परंपरा संस्कारों का

आधार है बिन्दी

माँ के माथे की बिन्दी


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महेश्वरी कनेरी

Monday, 10 November 2014

गाय माता


      गाय माता 
   (भुजंगप्रयात छन्द )

  गले से लगा बाँटते प्यार देखा

जुबा मौन है बोलते भाव देखा

यही भक्ति आस्था यही धर्म माना

यही प्रीत प्यारी यही छाँव जाना



बड़े प्यार से दूध माँ तू पिलाती

तभी गाय माता सदा तू कहाती

दही दूध तेरा सभी को लुभावे

अभागा वही है इसे जो न पावे



नहीं माँगती सिर्फ देती सभी को

नहीं दर्द माँ बाँटती है किसी को

झुका शीश आशीष को माँ दया दे

रहूँ पूजता माँ सदा ये दुवा दे

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महेश्वरी कनेरी

Friday, 19 September 2014

अटूट बंधन









 अटूट बंधन

कल रात भर आसमान रोता रहा

धरती के कंधे पर सिर रख कर

 इतना फूट फूट कर रोया कि

 धरती का तन मन

सब भीग गया

पेड़ पौधे और पत्ते भी

इसके साक्षी बने

उसके दर्द का एक एक कतरा

कभी पेडो़ं से कभी पत्तों में से

टप-टप धरती पर गिरता रहा

धरती भी जतन से उन्हें

समेटती रही,सहेजती रही

और..

दर्द बाँट्ने की कोशिश करती रही

ताकि उसे कुछ राहत मिल जाए


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महेश्वरी कनेरी

Tuesday, 19 August 2014

पीपल (छन्द - गीतिका)


                   पीपल (छन्द - गीतिका)
             ऐतिहासिक वृक्ष पीपल, मौन वर्षो से खड़े
पारहे आश्रय सभी है ,गोद में छोटे बड़े

 मौन तरुवर हो अडिग तुम  , श्रृष्टि का वरदान हो
हे सकल जग प्राणदाता, सद् गुणों की खान हो

हो घरोहर पूर्वजों का ,पीढियों से मान है
पूजते नर और नारी,भक्ति आस्था ग्यान है

सर्वव्यापी सर्वदा हो चेतना  बन बोलते
सर्वसौभाग्य हे तरुवर, धर्म रस हो घोलते
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महेश्वरी कनेरी
                        
 मित्रों कुछ घरेलु व्यवस्था के कारण आज बहुत समय बाद ब्लांग पर आना हुआ ...माफी चाहुँगी... छंद विधा में यह मेरा प्रथम प्रयास है..उम्मीद है आप सभी मुझे प्रोत्साहित करेंगे.....आभार

Thursday, 26 June 2014

खिलखिलाती रही



कतरा कतरा बन

जि़न्दगी गिरती रही

समेट उन्हें,मै 

यादों में सहेजती रही

अनमना मन मुझसे

क्या मांगे,पता नहीं

पर हर घड़ी धूप सी

मैं ढलती रही

रात, उदासी की चादर

उढा़ने को आतुर बहुत

पर मैं तो

चाँद में ही अपनी

खुशी तलाशती रही

और चाँदनी सी 

खिलखिलाती रही

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महेश्वरी कनेरी

Wednesday, 11 June 2014

एक अच्छी शुरुवात है



आज सुरमई प्रभात है
कुछ नई सी बात है
उम्मीद नहीं विश्वास है
एक अच्छी शुरुवात है
एक पग आगे बढ़ा
कोटि पग बढ़ने लगे
हाथों से हाथ मिले
दिलों से दिल जुड़ने लगे
जज्बे की ये बात  है
एक अच्छी शुरुवात है……….
छुप गया हो तम जैसे
किरणों की बौछार से
खिल उठीं कली-कली
बसंत की पुकार से
अनुपम ये सौगात है
एक अच्छी शुरुवात है………….
हौसलों में उड़ान भर
चेतन मन थकता नहीं
असंभव को संभव करे
जो वक्त से डरता नहीं
ये हौसलों की बात है
एक अच्छी शुरुवात है……….

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महेश्वरी कनेरी

Wednesday, 28 May 2014

इंसान का कद




 इंसान का कद

इंसान का कद आज

इतना ऊँचा हो गया

कि इंसानियत उसमें

अब दिखती नहीं

दिल इतना छोटा होगया

कि भावनाएं उसमें अब

 टिक पाती नहीं

जिन्दगी कागज़ के फूलों सी

सजी संवरी दिखती तो है

पर प्रेम, प्यार और संवेदनाओ

की वहाँ खुशबू नहीं

चकाचौंध भरी दुनिया की

 इस भीड़ में इतना आगे

 निकल गया इंसान

कि अपनों के आँसू

अब उसे दिखते नहीं

आसमां को छूने की जिद्द में

पैर ज़मी पर टिकते नहीं

सिवा अपने, छोटे-छोटे

कीड़े मकोड़े से दिखते सभी

कुचल कर उन्हें, आगे बढ़ो

यही सभ्य समाज की

नियति सी बन गई अब

ऐसा कद भी किस काम का

जिससे माँ का आँचल ही

 छोटा पड़ जाए

और पिता गर्व से उन

कंधों को थपथपा भी न पाए

जिस पर बैठ,वह

बड़ा हुआ था कभी

ऐसा कद भी किस काम का…


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महेश्वरी कनेरी

Wednesday, 14 May 2014

गौरैया

गौरैया
माँ ! आँगन में अपने
अब क्यों नहीं आती गौरैया
शाम सवेरे चीं चीं करती
अब क्यों नहीं गाती गौरैया
फुदक- फुदक कर चुग्गा चुगती
पास जाओ तो उड़ जाती
कभी खिड़की, कभी मुंडेर पर
अब क्यों नहीं दिखती गौरैया
माँ बतला दो मुझ को
कहाँ खोगई  गौरैया ?

विकास के इस दौर में,बेटा !
मानव ने देखा स्वार्थ सुनेरा
काटे पेड़ और जंगल सारे
 और छीना पंछी का रैन बसेरा
रुठ गई हम से अब हरियाली
पत्थर का बन गया शहर
अब आँगन बचा चौबारा
सब तरफ प्रदूषण का कहर
कीट पतंगे चुग्गा दाना
बिन पानी सूखे ताल तलैया
क्या खाएगी कहाँ रहेगी
बेचारी नन्हीं सी गौरैया
भीषण प्रदूषण के कारण
लुप्त हो रहे दुर्लभ प्राणी
दिखेगी कैसे अब आँगन में
बेटा ! नन्हीं प्यारी गौरैया 

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महेश्वरी कनेरी