फिर छू गया दर्द कोई
हवा ये कैसी चली
यादों ने ली फिर अंगड़ाई
आँख मेरी भर आई
हवा ये कैसी चली……
सब्र का हर वो पल मेरा
कतरा-कतरा बन गिरता रहा
होठ हँसते रहे , आँख रोती रही
हवा ये कैसी चली….
हालात के लपटों में
झुलसते रहें अरमान सारे
जज्बात चिथड़े बन उड़े
जिन्दगी सिसकने लगी
हवा ये कैसी चली….
खामोशी ने होठ सी लिए
उदासी कहर बरसाने लगी
बेबस जिन्दगी माँगती रही
मुझसे मुस्काने का वादा
दर्द लिए मैं मुस्काती रही
हवा ये कैसी चली………
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महेश्वरी कनेरी