गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
आज ५ सितम्बर है,यानी शिक्षक दिवस । आज के दिन हम प्रत्येक उन महानुभूतियों को याद करते हैं तथा श्रद्धा पूर्वक शीश झुकाते हैं जिन्होंने हमारे जीवन दर्शन को किसी न किसी रुप में प्रभावित किया है वही हमारे गुरू हैं ।कभी माता पिता ,कभी संगी साथी , कभी अध्यापक तथा कभी शिक्षक के रुप में आकर हमारे जीवन को सजाते सवारते हैं वे सभी हमारे गुरु है ।
“गु” शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और “रू” शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान) अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रुपी प्रकाश है, वह गुरु है ।
भारतीय संस्कृति में गुरु को सर्वोपरी माना गया है ,यही हमारी संस्कृति का मूल मंत्र भी है ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रह्मा
तस्मै श्री गुरवे नमः"
भारतीय संस्कृति में गुरु और शिष्य का प्रमुख स्थान रहा है,हमारी संस्कृति का नींव भी इसी पर आधारित है ।श्री बुद्ध आनंद, श्री रामकृष्ण विवेकानंद जैसे गुरु शिष्य का यशोगान हमेशा से होता रहा है । विख्यात कवि तथा सच्चे समाज सुधारक कबीर दास जी की पंक्तियाँ
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट
भीतर हाथ सहारिया, बाहर मारे चोट .."
अर्थात गुरु कुम्हार है, जो शिष्य रुपी घड़े को पीट-पीट कर उसे सही आकार देते हैं और साथ ही साथ अंदर से हाथ का सहारा भी देते रहते हैं । गुरु शिष्य संबंध को समझने के लिए ये बहुत अच्छा उदाहरण है ।
प्रचीन काल में गुरु शिष्य के संबंधो का आधार था- गुरु का ज्ञान,उनकी मौलिकता और उनका नैतिक बल , शिष्य के प्रति उनका स्नेह तथा ज्ञान बाँटने का निस्वार्थ भाव । शिष्य में भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा,गुरु की क्षमता पर पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव ,अनुशासन तथा आज्ञाकारिता होती थी ।
आचार्य गुरु चाणक्य के अनुसार एक आदर्श शिष्य के क्या गुण होने चाहिए…
“काकचेष्टा बकुल ध्यानं श्वान निद्रा तथेव च
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थीनाम पंचलक्षणं “
गुरु और शिष्य के बीच में केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था बल्की गुरु अपने शिष्य के संरक्षण के रुप में कार्य करते थे,उनका उद्देश्य होता था शिष्य का समग्र विकास । शिष्य को भी गुरु पर पूर्ण विश्वास होता था कि गुरु कभी उनका अहित सोच ही नही सकते । यही विश्वास उनकी अगाध श्रद्धा और समर्पण का कारण रहा था।
गुरु का आदर्श एक लम्बी परम्परा रही है पर इस पावन परम्परा पर कुछ गंभीर अपवाद भी लगे हैं।
एक्लव्य की कहानी कौन भूला सकता है । जिन्होंने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर धनुर्विद्या स्वयं ही सीखी थी लेकिन द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रुप मे उनके दाहिने हाथ का अंगुठा ही माँग लिया था ।
लेकिन आज समय बदल गया है मान्यताएं बदल गई है । समाज अधिक जागरुक होगया है । किसी गुरु के द्वारा अपने शिष्य के प्रति ऐसा अन्याय हो जाए तो वह चुप नहीं बैठेगा और उसका विरोध अवश्य करेगा ।
आज ज़रुरत है गुरु और शिष्य अपने अंतरात्मा में झाँके और सोचें कि गुरु शिष्य के संबंधो में आरही गिरावट को कैसे रोका जाये और कैसे इस रिश्ते की गरिमा को बनाएं रखें ।
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शिक्षक दिवस की सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं
महेश्वरी कनेरी