जिन्दगी यूँ ही चलती रहती है
( कहानी )
सर्दी हो,गर्मी हो या फिर बरसात ,देहरादून में तीनों ही मौसमों
का अपना अलग ही अंदाज है और हमेशा ही अपनी विशेष पहचान बनाए रखते हैं
यहाँ के जाड़ों का तो जवाब ही नही ,रात को रजाई में घुस कर मूँगफली खाते हुए टी.वी. देखने का
मजा़ कुछ आलग ही होता है और सुबह की हल्की गुनगुनी सी धूप में बैठना स्वर्गीय़ आनंद
देजाता है..हमारे घर में तो सुबह चाय नाश्ता,दिन का खाना और शाम की चाय तक सब बाहर लांन में ही बैठ कर किया जाता है .बस एक बार धूप में बैठ जाओ तो अंदर जाने का मन ही नही
करता ,जहाँ जहाँ घूप सरकती, हमारी कुर्सियाँ भी वही वही खिसकने लगती है । पहले तो शाम होते ही अँगीठियाँ
जला दी जाती थी,पर अब तो रुम हीटर और ब्लोवर ने अँगीठियों
की जगह ही ले ली ।
हैदराबाद से जब भी मेरी बेटी फोन
करती
अकसर यही पूछती और ..माँ धूप सेक रहे हो ? वो
यहाँ के जाड़ों को आज भी मिस किया करती है,
लेकिन इस
बार इत्तफाक से जनवरी की कड़कती ठंड़
में उसका यहाँ आना हुआ ,बस
फिर क्या था .
.नाश्ते का मैन्यू हर रोज बदलने लगे
,कभी आलू के भरे पराठे, कभी गोभी के तो कभी
मूली के,और कभी तोर की दाल का भरा पराठा.सारा
दिनखाने पीने और
गपशप में ही निकल जाया तरता था
.
एक दिन अचानक बैठे बैठे प्रोग्राम
बन गया कि
चलो आज डीनर बाहर किया जाए. इसी बहाने थोड़ा
चेंज भी
हो जाएगा और घर की औरतों को थोड़ा
आराम भी मिल जाएगा ,बस फिर क्या
था शाम की
चाय के बाद ही बाहर जाने की तैयारी शुरु हो गई ।
आज सुबह से ही धूप थोडी़ हल्की सी थी
और,शाम होते होते तो बादलो ने आसमान
में अपना
डेरा ही डालना शुरु कर लिया ,ठंड़
भी कुछ बढ़ने
लगी थी कही
बारिश न हो जाए इस डर से हमने
सोचा यही कहीं आसपास ही जाएं और जल्दी ही घर
वापस आ जाएंगे
.ठीक सात बजे के लगभग हम घर
से निकले , रेस्टुरेन्ट ज्यादा दूर न था बस दस
मिनट में ही
वहाँ पहुँच गए ।
गाडी़ पार्क करते ही हम सभी आगे
की ओर बढ़ ही रहे थे कि ,अचानक मुझे लगा कोई मुझे आवाज दे रहा है,मैंने पीछे मुड़
कर देखा, एक बारह-तेरह साल का दुबला पतला
सा लड़का गेहुँवा रंग, गोल-गोल सी उदास आँखे,फटे हाल कपड़ों में सर्दी से काँप रहा था,मैने पूछा क्या
बात है ? बहुत ही धीमे स्वर में घबराते हुए वो बोला,‘माँ बहुत
भूख लगी है,’ मैंने ध्यान से उसे देखा, सच में ही वह भूखा ही लग रहा था. मुझे दया आगई पर अगले ही पल मैने इस तरह तो हम
बच्चों में भीख माँगने की प्रवृति को बढ़ावा दे रहे है,इसका अंजाम
बुरा भी होसकता है, तभी मेरी बेटी मेरे पास आकर बोली देदो न माँ
उसे कुछ पैसे ,भूखा है बेचारा, क्या सोच
रही हो ? अनमनी सी होकर मैंने पर्स में से दस का एक नोट निकाल
कर उसके हाथ में रख ही रही थी कि,तभी बेटी फिर बोल पड़ी
‘माँ , कम से कम बीस तीस तो देदो बेचारे को,दस रुपए में क्या आएगा,होटल में भी तो हम सौ पचास तो
बैरे को टिप में यूँ ही देदेते है,मैने सोचा ठीक ही कह रही है
फिर पर्स में से बीस का एक नोट निकाल कर उस के हाथ में रख दिए ,आश्चर्य से वह उस नोट को देखता रहा जैसे उसे विश्वास ही नही होरहा हो उसकी
उदास आँखों मे चमक सी आगई थी, शायद धन्यवाद देने के लिए वह मेरे
पैरो की ओर थोड़ा झुका फिर वहाँ से तेजी से भाग गया , अब तक घर
के बाकी लोग होटल के अंदर जा चुके थे ,
खैर अंदर पहुँच कर देखा सब के सब
मैनू कार्ड में आँखे गड़ाए बैठे हुए थे. पति देव पूछने लगे कहाँ
रह गए थे भई ? मैने .कुछ नहीं ऐसे ही कहते
हुए बात टाल दी ,और एक मैनू कार्ड अपनी ओर सरकाकर देखने लगी
,थोड़ी देर में बच्चों की अलग और बड़ो की अलग फरमाईशो की लिस्ट बनने
लगी,खैर दोनों को बैलेन्स कर हमने खाना आडर कर दिया
खाना खाते खाते हमें वही नौ बज
चुके थे.मुझे चिन्ता थी कही बारिश न हो जाए फिर ठंड भी तो बढ़
रही थी,पर बच्चे कहाँ मानने वाले थे जाते जाते आईसक्रीम की फरमाईश
भी कर दी, लगभग दस बजे हम घ्रर पहुँचे, हल्की हल्की बूँदा बाँदी भी शुरु हो गई थी, जल्दी से
कपड़े बदल कर सभी अपनी अपनी रजाई में घुस गए ,जैसे बहुत थक गए
हो कभी कभी बीना काम के भी हम बहुत थक से जाते हैं वही हुआ
,सोचा कल सुबह थोड़ा आराम से ही उठुँगी घूमने नही जाऊँगी बारिश भी हो रही
है अगर एक दिन नही भी गई तो क्या हो जाएगा, मन को समझा बुझा कर
सो गई।
अचानक फोन की तेज़ घंटी ने मुझे
जगा दिया,आजकल जितनी सुविधाए हैं उतनी मुसीबत भी, मैं झल्ला कर उठी और फोन उठाया हेलो! उस तरफ से आवाज़
आई अरे !”अभी तक सो रही हो क्या ? आज घूमने
नही जाना हम आप के गेटके
बाहर ही खड़े हैं जल्दी आजाओ’ मेरी सुने बगैर ही फोन काट दिया,जाने कहाँ की जल्दी थी ,मै मन ही मन बड़बड़ाई, खैर खिड़की से पर्दा हटा कर देखा अभी भी झुरमुठ सा अंधेरा था लेकिन आसमान बिल्कुल
साफलग रहा था ,अनमने मन से उठी जल्दी जल्दी गरम कपड़े पहनेऔर सर्दी
से बचने के लिए खुद को अच्छी तरह्से लपेटा और बाहर निकल आई सामने ही मिसेज शर्मा और
उनकी छोटी बहन खड़ी थीं,जो आजकल दिल्ली से आई हुई हैं ।
मिसेज शर्मा हमारी बहुत ही अच्छी
पड़ोसन है दोनों ही पति पत्नि बहुत सुलझे हुए मिलनसार और हँसमुख स्वभाव के है उनके दो
बच्चे दोनों ही अमेरिका में सैटल हैं,अकेले होकर भी वे कभी अकेलापन
मह्सूस नही करते और न ही पडो़सियों को करने देते हैं दोनों ही बहुत जिन्दादिल इंसान
है,मिसेज शर्मा अकसर मुझे कहा करती है छोड़ो बहुत हो गया घर का
काम. कभी अपने लिए भी समय निकल लिया करो ,वैसे सच ही कहती है ,हम औरतो के पास अपने लिए समय ही
कहाँ होता है ,सुबह से शाम तक घर का काम खत्म ही नही होता ।
मुझे आते देख कर मिसेज शर्मा मुस्कुराती हुई बोली ‘सब
ठीक तो है न’ मैं भी सिर हिला कर हल्के से मुस्काई और हम आगे
बढ़ गए ।
खुला आसमान, साफ सुथरी सडक, , हल्की लालिमा लिए सूर्य की किरणॆ मानो
धरती पर आने को ललायित हो और मसूरी की ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हिम
की सफेद चादर ओढे मानो रात की कहर बयाकर रही हो, तीखी ठंड़क लिए
हवा भी इधर उधर डॊल रही थी बेचारे सड़क के आवारा कुत्ते मारे ठंडके अपनी दोनो टांगों
के बीच सिर छुपा कर सोए पड़े थे,कही कही इक्के दुक्के लोग ही सड़को
पर दिखाई देरहे थे,रात की बारिश ने कितनों को सोने नहीं दिया
होगा और जो सो भी गए उन्हें उठने नही दिया होगा
तेज़ कदम बढ़ाते हुए हम गाँधी पार्क
के नजदीक पहुँच गए गेट के सामने ही बडी भीड़ सी लगी हुई थी,उत्सुक्तावश
हम भी वहाँ पहुचे,पूछने पर पता चला कि कल रात की भीषण ठंड़ ने
एक बालक की जान ले ली ,मै अपने को रोक नपाई और भीड़ को चीरती हुई
उसतक पहुँच गई.देख कर चौक गई अरे !ये तो
वही है जो कल रात हमें मिला था और उसे मैने पैसे भी दिए थे, मैं
इतनी धबरा गई कि किसी से कुछ न कह सकी बस देखती रही उसका सारा शरीर ठंड़ से अकड़ा हुआ
था कपड़े भीगे हुए थे और गीले बाल माथे पर बिखर गए थे,
कल और आज यानी जीवन और मृत्यु इंसान
को कितना लाचार बना देता है कल तक जो जीने के लिए संघर्ष कर रहा था आज हार कर हमेशा
के लिए सो गया,लोग तरह-तरह की बातें कर
रहे थे, तभी मेरी नज़र सामने पानी में तैरते हु्ये एक खाली पूडे
पर पडी़ जो इस बात की गवाही दे रहा था कि वह भूख से तो नही मरा होगा मुझे यह जान कर
थोड़ी तसल्ली् सी मिली .
तभी पार्क का चौकीदार वहाँ आ पहुँचा
कहने लगा ‘साब ये करीब एक हफ्ते से अकसर यहाँ आया करता था
,कल रात जब मैं गेट बंद करने आया तो तब भी ये यही बैठा हुआ था मैने कहा
भी बारिश होने वाली है ठंड भी बढ़ रही है जा घर जा’ फिर खुद ही
कहने लगा, ‘साब घर होता तो जाता न ,नजाने
कहाँ से आया माँ बाप है भी या नही , कुछ पता नही’
तभी वहाँ खड़े
एक सज्जन बोलने लगे,’मैने भी एक दिन इससे कहा,
कहाँ भीख माँगता मारा-मारा फिर रहा है चल मेरे
घर चल तुझे काम भी सीखाऊँगा और खाना भी खिलाऊँगा लेकिन घर का नाम सुनते ही उसका मुख
सफेद पड़ गया और वहाँ से भाग गया’ लोगो की बातें मेरे कानो में
पीघले हुए शीशे कि तरह पड़ रही थी मै अधिक देर तक वहाँ खडी न रहसकी तभी कुछ पत्रकार
हाथो में कैमरा लिए वहाँ आ पहुँचे लोगो से कुछ पूछताछ की और एक आध फोटो खींची और चले
गए ,बाकी की कहानी तो उनके पास होती ही है.मैं सोच रही थी कभी कभी किसी की मौत किसी के जीविका का साधन बन जाती है
मन बहुत दुखी था,एक अजीब सी बेचैनी थी ,हम वापस घर लौट आए, घर पहुँच कर अंदर जाने का मन ही नही हुआ बस सीधे ही छत पर चली आई.आसमान साफ और शान्त सा दिख रहा था.सब कुछ वैसा ही था
जैसे कुछ हुआ ही ना हो पर मन मे प्रश्नो का बहुत शोर था ,पर कहीं
कोई उत्तर न था सूरज की किरणे धीरे धीरे धरती पर समाहित होने लगी सड़को पर गाडिया दौडने
लगी घर घर में बच्चे जाने की तैयारी कर रहे थे पडोस मे लगातार कुकर की बजती सीटी ने
मेरा ध्यान भंग कर दिया और अचानक मुझे याद आया अरे! आज तो मेरी
बेटी ने वापस अपने ससुराल लौटना है,मै जल्दी से नीचे उतर आई देखा
तो सब उठ चुके थे और चाय की इंतजारी हो रही थी और मै बिना किसी से कुछ बोले ही अपने
कामो मे लग गई
किसीके चले जाने से कुछ भी नही रुकता जिन्दगी यूँ ही चलती रहती है, यही जिन्दगी
है शायद…..
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महेश्वरी कनेरी
‘
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-02-2016) को "किन लोगों पर भरोसा करें" (चर्चा अंक-2259) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जिन्दगी चलती रहती हैं |
ReplyDeleteधन्यवाद शास्त्री जी
ReplyDeleteआभार ब्लाग बुलेटिन
ReplyDeleteहाँ , चलने का नाम ही जिंदगी है । सुंदर कहानी ।
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