तुम एक माँ हो
हर आह्ट पर काँपते हाथों से
जब भी तुम दरवाजा खोलती होगी
देख फिर सूने आँगन को
मन मसोर कर रह जाती होगी
बार-बार न जाने कितनी बार
तुम दरवाजे तक आती और जाती होगी
उधर आस लगाए बाबा
जब भी पूछ्ते,कौन है ?
तुम धीरे से, कोई नही कह
कामों में लग जाती होगी
बुझे हुए मन से, जब भी तुम
रसोई जलाती होगी
धुंधलाती आँखे,कँपकपाते हाथ
तुम्हारा साथ न देते होगे
रात भर बाबा की खाँसी,
और तुम्हारे पैरों का दर्द
तुम्हें सोने न देते होगे
तब पीडा भरी ये रातें कितनी लम्बी,और
उम्मीदों के दिन कितने छोटे पड़ जाते होगे
तुम बाबा को तो हिम्मत दे देती होगी
पर खुद अश्रु पीकर रह जाती होगी
उसका माँ माँ कह कर छिप जाना
फिर खिलखिला कर लिपट जाना
याद कर करके , तुम रो देती होगी
कहाँ भूलाए जाते हैं वो दिन,
वो प्यारे से रिश्ते
जो एक ही गर्भ नाल
से जुड़े होते हैं
कहाँ चूक हो गई हमसे
अकसर तुम सोचा करती होगी
जीवन संध्या के इस ढलती बेला में
जब भी तुम अकेली होती होगी
उम्मीदो का तब दीय़ा जलाकर
अंधेरो से लडा करती होगी
मुझे मालूंम है ,
पल पल तो टूटती रहती होगीं
पर खुद को न बिखरने देती होगी
क्यों कि तुम एक माँ हो
तुम एक माँ हो
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महेश्वरी कनेरी
मर्मस्पशी .... बहुत सुंदर
ReplyDeleteमाँ की कथा व्यथा .... मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "६८ वें सेना दिवस की शुभकामनाएं - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना ...
ReplyDeleteमाँ के हृदय की करुण पुकार..
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
Phir khud ko n bikhrne deti hogi...... Maa ek vardaaaan hai
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