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Thursday, 17 November 2016

नव भारत





न लाठी चली न आवाज हुई 
मगर नोट पर चोट करारी है 
सोच समझ कर खामोशी से 
की गई ये तैयारी है

संभल जाओ ये  गद्दारो 
 जाने अब किसकी बारी है 
बज उठा बिगुल नव भारत का 

देश बदलने की तैयारी है 
*****
महेश्वरी कनेरी 

Saturday, 24 September 2016

माँ तू बोली थी न


माँ तू बोली थी न
जब बाबा तेरे आएंगे
ढेर खिलौने लाएंगे
पर वो तो खाली हाथ लिए 
तिरंगा ओढे सोए हुए हैं
माँ ! क्या हुआ है बाबा को
क्यों बाहर इतनी भीड़ लगी हैं
जय जय सब क्यों बोल रहे है
अंदर दादी रोए रही है
तू काहे बेहोश पडी है
उठ ये तो बतला दे माँ
क्या हुआ है बाबा को
तू बोली थी
जब बाबा तेरे आएंगे
बैठा कांधे पर तुझको
 सारा गाँव घुमाएंगे
पर वो खुद ही बैठ
 कांधे  किसी के आए हैं
 सजे हुए है फूलो से
 यूँ ही खामोश पडे है
उठ ये तो बतला दे माँ
क्या हुआ है बाबा को
 क्यों चाची माथा तेरा पोछ रही है
रोते रोते चूड़ी तेरी तोड़ रही है
क्यों नहीं कुछ कहती हो माँ
क्यों यूँ चुप चाप पडी हो ?
 देखकर माँ की इस हालत को
 हताश हो गया था अब मुन्ना
भरकर आँखो में आँसू
 धम से बैठ गया वही पर  
 कौन पोछे अब आँसू  उसके ?
कौन दे उत्तर उन प्रश्नों के ?
तभी देख नानी ने उसको
 झट गोदी में उठा लिया
  सहलाकर बालो को उसके
बोली मेरा मुन्ना मेरा राजा
रोना नहीं तू हिम्मत रख
बहादुर बाप का बहादुर बेटा है तू
सुन बाबा तेरे मरे नही है, शहिद हुआ है
जान लुटा दी देश के खातिर उसने
आज नत मस्तक सारा देश हुआ है
सुनकर मुन्ना गोदी से उतरा
भर कर आँखों में आँसू
 निकट बाबा के जा बैठा
दो नन्हें हाथों को जोड़े
 मन ही मन कुछ वो बोला
समझ न सका कोई कुछ भी
 बस झर झर आँसू बह रहे थे सब के
 अब न थी कोई शिकायत
 न कोई प्रश्न न उत्तर   
 क्षणभर मे ही वो नन्हा बालक
 बडा हो गया था शायद
*****************
महेश्वरी कनेरी


Wednesday, 23 March 2016

होली पर … (कह मुकरी )

होली पर … (कह मुकरी )  शुभ कामनाओ सहित
(१)    घर घर में उल्लास जगाता
         प्रेम रंग चुपके से लाता
         बरबस करता रहे ढिढोली
         क्या सखि साजन..?
         ना सखी होली
  (२)    हर फागुन में वो आजाता
        प्रेम फाग की अलख जगाता
        महल बस्ति हो या फिर खोली
        रंग रंग उसकी हम जोली
        क्या सखि साजन..?
        ना सखी होली

        महेश्वरी कनेरी
************************




Saturday, 20 February 2016

जिन्दगी यूँ ही चलती रहती है (कहानी)



                       जिन्दगी यूँ ही चलती रहती  है

               ( कहानी )

   सर्दी हो,गर्मी हो या फिर बरसात ,देहरादून में तीनों ही मौसमों का अपना अलग ही अंदाज है और हमेशा ही अपनी विशेष पहचान बनाए रखते हैं
   यहाँ के जाड़ों का तो जवाब ही नही ,रात को रजाई में घुस कर मूँगफली खाते हुए टी.वी. देखने का मजा़ कुछ आलग ही होता है और सुबह की हल्की गुनगुनी सी धूप में बैठना स्वर्गीय़ आनंद देजाता है..हमारे घर में तो सुबह चाय नाश्ता,दिन का खाना और शाम की चाय तक सब बाहर लांन में ही बैठ कर किया जाता है .बस एक बार धूप में बैठ जाओ तो अंदर जाने का मन ही नही करता ,जहाँ जहाँ घूप सरकती, हमारी कुर्सियाँ भी वही वही खिसकने लगती है । पहले तो शाम होते ही अँगीठियाँ जला दी जाती थी,पर अब  तो रुम हीटर और ब्लोवर ने अँगीठियों की जगह ही ले ली ।
    हैदराबाद से जब भी मेरी बेटी फोन करती 

अकसर यही पूछती और ..माँ धूप सेक रहे हो ? वो

 यहाँ के जाड़ों को आज भी मिस किया करती है,

लेकिन इस बार इत्तफाक से जनवरी की कड़कती ठंड़ 

में उसका यहाँ आना हुआ ,बस फिर क्या था .

.नाश्ते का मैन्यू हर रोज बदलने लगे

,कभी आलू के भरे पराठे, कभी गोभी के तो कभी 

मूली के,और कभी तोर की दाल का भरा पराठा.सारा 

दिनखाने पीने और गपशप में ही निकल जाया तरता था
.
   एक दिन अचानक बैठे बैठे प्रोग्राम बन गया कि 

चलो आज डीनर बाहर किया जाए. इसी बहाने थोड़ा

चेंज भी हो जाएगा और घर की औरतों को थोड़ा

आराम भी मिल जाएगा ,बस फिर क्या था शाम की 

चाय के बाद ही बाहर जाने की तैयारी शुरु हो गई ।

    आज सुबह  से  ही धूप थोडी़ हल्की सी थी

और,शाम होते होते तो बादलो ने आसमान  में अपना

 डेरा ही डालना शुरु कर लिया ,ठंड़ भी कुछ बढ़ने

 लगी  थी कही बारिश न हो जाए इस डर से हमने

 सोचा यही कहीं आसपास ही जाएं और जल्दी ही घर

 वापस आ जाएंगे .ठीक सात बजे के लगभग हम घर

 से निकले , रेस्टुरेन्ट  ज्यादा दूर न था बस दस

मिनट में ही वहाँ पहुँच गए ।

   गाडी़ पार्क करते ही हम सभी आगे की ओर बढ़ ही रहे थे कि  ,अचानक मुझे लगा कोई मुझे आवाज दे रहा है,मैंने पीछे मुड़ कर देखा, एक बारह-तेरह साल का दुबला पतला सा लड़का गेहुँवा रंग, गोल-गोल सी उदास आँखे,फटे हाल कपड़ों में सर्दी से काँप रहा था,मैने पूछा क्या बात है ? बहुत ही धीमे स्वर में घबराते हुए वो  बोला,‘माँ बहुत भूख लगी है,’ मैंने ध्यान से उसे देखा, सच में ही वह भूखा ही लग रहा था. मुझे दया आगई  पर अगले ही पल मैने इस तरह तो हम बच्चों में भीख माँगने की प्रवृति को बढ़ावा दे रहे है,इसका अंजाम बुरा भी होसकता है, तभी मेरी बेटी मेरे पास आकर बोली देदो न माँ उसे कुछ पैसे ,भूखा है बेचारा, क्या सोच रही हो ? अनमनी सी होकर मैंने पर्स में से दस का एक नोट निकाल कर उसके हाथ में रख ही रही थी कि,तभी बेटी फिर बोल पड़ीमाँ , कम से कम बीस तीस  तो देदो बेचारे को,दस रुपए में क्या आएगा,होटल में भी तो हम सौ पचास तो बैरे को टिप में यूँ ही देदेते है,मैने सोचा ठीक ही कह रही है फिर पर्स में से बीस का एक नोट निकाल कर उस के हाथ में रख दिए ,आश्चर्य से वह उस नोट को देखता रहा जैसे उसे विश्वास ही नही होरहा हो उसकी उदास आँखों मे चमक सी आगई थी, शायद धन्यवाद देने के लिए वह मेरे पैरो की ओर थोड़ा झुका फिर वहाँ से तेजी से भाग गया , अब तक घर के बाकी लोग होटल के अंदर जा चुके थे ,
    खैर अंदर पहुँच कर देखा सब के सब मैनू कार्ड में आँखे गड़ाए बैठे हुए थे. पति देव पूछने लगे कहाँ रह गए थे भई ? मैने .कुछ नहीं ऐसे ही कहते हुए बात टाल दी ,और एक मैनू कार्ड अपनी ओर सरकाकर देखने लगी ,थोड़ी देर में बच्चों की अलग  और बड़ो की अलग फरमाईशो की लिस्ट बनने लगी,खैर दोनों को बैलेन्स कर हमने खाना आडर कर दिया
      खाना खाते खाते हमें वही नौ बज चुके थे.मुझे चिन्ता थी कही बारिश न हो जाए फिर ठंड भी तो बढ़ रही थी,पर बच्चे कहाँ मानने वाले थे जाते जाते आईसक्रीम की फरमाईश भी कर दी, लगभग दस बजे हम घ्रर पहुँचे, हल्की हल्की बूँदा बाँदी भी शुरु हो गई थी, जल्दी से कपड़े बदल कर सभी अपनी अपनी रजाई में घुस गए ,जैसे बहुत थक गए हो कभी कभी बीना काम के भी हम  बहुत थक से जाते हैं वही हुआ  ,सोचा कल सुबह थोड़ा आराम से ही उठुँगी  घूमने नही जाऊँगी बारिश भी हो रही है अगर एक दिन नही भी गई तो क्या हो जाएगा, मन को समझा बुझा कर सो गई।
    अचानक फोन की तेज़ घंटी ने मुझे जगा दिया,आजकल जितनी सुविधाए हैं उतनी  मुसीबत भी, मैं झल्ला कर उठी और फोन उठाया हेलो! उस तरफ से आवाज़ आई अरे !”अभी तक सो रही हो क्या ? आज घूमने नही जाना  हम आप के गेटके बाहर ही खड़े हैं जल्दी  आजाओमेरी सुने बगैर ही फोन काट दिया,जाने कहाँ की जल्दी थी ,मै मन ही मन बड़बड़ाई, खैर खिड़की से पर्दा हटा कर देखा अभी भी झुरमुठ सा अंधेरा था लेकिन आसमान बिल्कुल साफलग रहा था ,अनमने मन से उठी जल्दी जल्दी गरम कपड़े पहनेऔर सर्दी से बचने के लिए खुद को अच्छी तरह्से लपेटा और बाहर निकल आई सामने ही मिसेज शर्मा और उनकी छोटी बहन खड़ी थीं,जो आजकल दिल्ली से आई हुई हैं ।
    मिसेज शर्मा हमारी बहुत ही अच्छी पड़ोसन है दोनों ही पति पत्नि बहुत सुलझे हुए मिलनसार और हँसमुख स्वभाव के है उनके दो बच्चे दोनों ही अमेरिका में सैटल हैं,अकेले होकर भी वे कभी अकेलापन मह्सूस नही करते और न ही पडो़सियों को करने देते हैं दोनों ही बहुत जिन्दादिल इंसान है,मिसेज शर्मा अकसर मुझे कहा करती है छोड़ो बहुत हो गया घर का काम. कभी अपने लिए भी समय निकल लिया करो ,वैसे सच ही कहती है ,हम औरतो के पास अपने लिए समय ही कहाँ होता है ,सुबह से शाम तक घर का काम खत्म ही नही होता ।
   मुझे आते देख कर मिसेज शर्मा मुस्कुराती हुई बोलीसब ठीक तो है नमैं भी सिर हिला कर हल्के से मुस्काई और हम आगे बढ़ गए ।
     खुला आसमान, साफ सुथरी सडक, , हल्की लालिमा लिए सूर्य की किरणॆ मानो धरती पर आने को ललायित हो और मसूरी की ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हिम की सफेद चादर ओढे मानो रात की कहर बयाकर रही हो, तीखी ठंड़क लिए हवा भी इधर उधर डॊल रही थी बेचारे सड़क के आवारा कुत्ते मारे ठंडके अपनी दोनो टांगों के बीच सिर छुपा कर सोए पड़े थे,कही कही इक्के दुक्के लोग ही सड़को पर दिखाई देरहे थे,रात की बारिश ने कितनों को सोने नहीं दिया होगा और जो सो भी गए उन्हें उठने नही दिया होगा  
      तेज़ कदम बढ़ाते हुए हम गाँधी पार्क के नजदीक पहुँच गए गेट के सामने ही बडी भीड़ सी लगी हुई थी,उत्सुक्तावश हम भी वहाँ पहुचे,पूछने पर पता चला कि कल रात की भीषण ठंड़ ने एक बालक की जान ले ली ,मै अपने को रोक नपाई और भीड़ को चीरती हुई उसतक पहुँच गई.देख कर चौक गई अरे !ये तो वही है जो कल रात हमें मिला था और उसे मैने पैसे भी दिए थे, मैं इतनी धबरा गई कि किसी से कुछ न कह सकी बस देखती रही उसका सारा शरीर ठंड़ से अकड़ा हुआ था कपड़े भीगे हुए थे और गीले बाल माथे पर बिखर गए थे,
    कल और आज यानी जीवन और मृत्यु इंसान को कितना लाचार बना देता है कल तक जो जीने के लिए संघर्ष कर रहा था आज हार कर हमेशा के लिए सो गया,लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे, तभी मेरी नज़र सामने पानी में तैरते हु्ये एक खाली पूडे पर पडी़ जो इस बात की गवाही दे रहा था कि वह भूख से तो नही मरा होगा मुझे यह जान कर थोड़ी तसल्ली् सी मिली .
  तभी पार्क का चौकीदार वहाँ आ पहुँचा कहने लगासाब ये करीब एक हफ्ते से अकसर यहाँ आया करता था ,कल रात जब मैं गेट बंद करने आया तो तब भी ये यही बैठा हुआ था मैने कहा भी बारिश होने वाली है ठंड भी बढ़ रही है जा घर जाफिर खुद ही कहने लगा, ‘साब घर होता तो जाता न ,नजाने कहाँ से आया माँ बाप है भी या नही , कुछ पता नही
तभी वहाँ खड़े एक सज्जन बोलने लगे,’मैने भी एक दिन इससे कहा, कहाँ भीख माँगता मारा-मारा फिर रहा है चल मेरे घर चल तुझे काम भी सीखाऊँगा और खाना भी खिलाऊँगा लेकिन घर का नाम सुनते ही उसका मुख सफेद पड़ गया और वहाँ से भाग गयालोगो की बातें मेरे कानो में पीघले हुए शीशे कि तरह पड़ रही थी मै अधिक देर तक वहाँ खडी न रहसकी तभी कुछ पत्रकार हाथो में कैमरा लिए वहाँ आ पहुँचे लोगो से कुछ पूछताछ की और एक आध फोटो खींची और चले गए ,बाकी की कहानी तो उनके पास होती ही है.मैं सोच रही थी कभी कभी किसी की मौत किसी के जीविका का साधन बन जाती है
   मन बहुत दुखी था,एक अजीब सी बेचैनी थी ,हम वापस घर लौट आए, घर पहुँच कर अंदर जाने का मन ही नही हुआ बस सीधे ही छत पर चली आई.आसमान साफ और शान्त सा दिख रहा था.सब कुछ वैसा ही था जैसे कुछ हुआ ही ना हो पर मन मे प्रश्नो का बहुत शोर था ,पर कहीं कोई उत्तर न था सूरज की किरणे धीरे धीरे धरती पर समाहित होने लगी सड़को पर गाडिया दौडने लगी घर घर में बच्चे जाने की तैयारी कर रहे थे पडोस मे लगातार कुकर की बजती सीटी ने मेरा ध्यान भंग कर दिया और अचानक मुझे याद आया अरे! आज तो मेरी बेटी ने वापस अपने ससुराल लौटना है,मै जल्दी से नीचे उतर आई देखा तो सब उठ चुके थे और चाय की इंतजारी हो रही थी और मै बिना किसी से कुछ बोले ही अपने कामो मे लग गई
  किसीके चले जाने से कुछ भी नही रुकता जिन्दगी यूँ ही चलती रहती  है, यही जिन्दगी है शायद…..
        *********************
                   महेश्वरी कनेरी 
    
     


  
 ‘

Thursday, 14 January 2016

तुम एक माँ हो


तुम एक माँ हो
हर आह्ट पर काँपते हाथों से
जब भी तुम दरवाजा खोलती होगी
देख फिर सूने आँगन को
मन मसोर कर रह जाती होगी
बार-बार न जाने कितनी बार
तुम दरवाजे तक आती और जाती होगी
उधर आस लगाए बाबा 
जब भी पूछ्ते,कौन है ? 
तुम धीरे से, कोई नही कह
कामों में लग जाती होगी
 बुझे हुए मन से, जब भी तुम
रसोई जलाती होगी
धुंधलाती आँखे,कँपकपाते हाथ 
तुम्हारा साथ न देते होगे
रात भर बाबा की खाँसी,
और तुम्हारे पैरों का दर्द
तुम्हें सोने न देते होगे
तब पीडा भरी ये रातें कितनी लम्बी,और
उम्मीदों के दिन कितने छोटे पड़ जाते होगे
तुम बाबा को तो हिम्मत दे देती होगी
पर खुद अश्रु पीकर रह जाती होगी
उसका माँ माँ कह कर छिप जाना
फिर खिलखिला कर लिपट जाना
याद कर करके , तुम रो देती होगी
कहाँ भूलाए जाते हैं वो दिन,
 वो प्यारे से रिश्ते
 जो एक ही गर्भ नाल
से जुड़े होते हैं
कहाँ चूक हो गई हमसे
अकसर तुम सोचा करती होगी
जीवन संध्या के इस ढलती बेला में
जब भी तुम अकेली होती होगी
 उम्मीदो का तब दीय़ा जलाकर
 अंधेरो से लडा करती होगी 
मुझे मालूंम है ,
पल पल तो टूटती रहती होगीं  
पर खुद को न बिखरने देती होगी
क्यों कि तुम एक माँ हो
तुम एक माँ हो
*************

महेश्वरी कनेरी