इंसान
का कद
इंसान का कद आज
इतना ऊँचा हो गया
कि इंसानियत उसमें
अब दिखती नहीं
दिल इतना छोटा होगया
कि भावनाएं उसमें अब
टिक
पाती नहीं
जिन्दगी कागज़ के फूलों सी
सजी संवरी दिखती तो है
पर प्रेम, प्यार और संवेदनाओ
की वहाँ खुशबू नहीं
चकाचौंध भरी दुनिया की
इस भीड़
में इतना आगे
निकल
गया इंसान
कि अपनों के आँसू
अब उसे दिखते नहीं
आसमां को छूने की जिद्द में
पैर ज़मी पर टिकते नहीं
सिवा अपने, छोटे-छोटे
कीड़े मकोड़े से दिखते सभी
कुचल कर उन्हें, आगे बढ़ो
यही सभ्य समाज की
नियति सी बन गई अब
ऐसा कद भी किस काम का
जिससे माँ का आँचल ही
छोटा
पड़ जाए
और पिता गर्व से उन
कंधों को थपथपा भी न पाए
जिस पर बैठ,वह
बड़ा हुआ था कभी
ऐसा कद भी किस काम का…
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महेश्वरी कनेरी