मिट्टी से लिपा चुल्हा
चुल्हे में सुलगती लकड़ियाँ
उसकी आँच में सिकी हुई
माँ के हाथों की
गरम रोटियाँ
बहुत याद आते हैं..वो दिन
हाँड़ी में पकती हुई दाल
सिलबट्टे में पीसे ताजे
मसालों की खुशबू
बेसब्री से करते
खाने का इंतजार
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
गर्मियों में
खुले आसमान के नीचे
छत पर सोना
किस्से कहानियों का दौर
चाँद तारों को देखते देखते
मीठे सपनों में खोजाना
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
बेफिक्र, मन मौजी से
अपनी ही दुनिया में रहना
कभी जिद्द कभी मनमानी करना
देर रात तक
छुप-छुप नावेल पढ़ना
बहुत याद आते हैं.. वो दिन
**************
महेश्वरी कनेरी
wakai bahut yaad aate hain ..sacchi mein yaad a gayi padhte padhte isko sundar yaade
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या बात
बहुत खूब सुंदर रचना,,,
ReplyDeleteRECENT POST: तेरी याद आ गई ...
सही में कितने सुहाने होते थे वो दिन
ReplyDeleteबहुत कुछ स्मरण हो आया
सादर!
एक एक शब्द उन दिनों की याद दिलाती
ReplyDeleteगहन भाव लिए बहुत सुंदर रचना और अभिव्यक्ति .......!!
*विस्मृत होती हैं
ReplyDeleteवो भी क्या दिन थे? आपकी रचना पढकर वो मिट्टी के चूल्हे की सौधी महक आने लग गई.
ReplyDeleteरामराम.
दो और दो पांच का खेल, ताऊ, रामप्यारी और सतीश सक्सेना के बीच
आभार ..आप का शास्त्री जी
ReplyDeleteबस यादें रह जाती है...
ReplyDeleteआपने बचपन याद दिला दिया , बहुत शुभकामनाये
ReplyDeleteयह यादें ही जीवन हैं ...
ReplyDeleteसुंदर रचना , बधाई आपको ! !
सच में हमको भी बहुत याद आते हैं आते हैं वो दिन …
ReplyDeleteअब तो माँ भी नहीं बनाती लेकिन चूल्हे पर रोटियां :)
सचमुच अनमोल हैं वो दिन
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteसच में बहुत याद आते हैं .... वो दिन
आभार आप का
सादर
बहुत सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteसच में बहुत याद आते हैं .... वो दिन
आभार आप का
सादर
वो दिन जितने अच्छे थे..क्यों न इन दिनों को उनसे बेहतर बना लें...कुछ वर्षों बाद फिर इनके भी गीत बना लें
ReplyDeleteबीत गए वो दिन बीत गए
ReplyDeleteकेवल यादों में वो रह गए --बहुत सुन्दर भाव युक्त रचना !
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जीवन के मौलिक सुखों में शामिल रहे हैं, ये सब क्षण। सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआदरणीया, कविता को पढ़कर मन झूम गया.और भी बहुत कुछ याद आ गया...मिट्टी के बर्तन में पका दूध, चूल्हे की आग में भुने हुए आलू, अंगारों पर सिंकी अंगाकर रोटी (नये चाँवल के आटे की मोटी रोटी),चूल्हे की राख से कंडील के काँच को साफ करना,सूखी लकड़ियों और कंडों का स्टोर रूम, बरसात में भीगी लकड़ियों से गुँगवाता धुँआ, धुँए को चीरती हुई फूँकनी.....वाह !!!!! कितने सुनहरे दिन थे....
ReplyDeleteबिलकुल आपने सब बचपन की बातें याद करवा दी अब शहर में यह सब कहाँ
ReplyDeleteवाकई अरुण निगम जी ने खूब कहा और भी बहुत कुछ याद आ गया
behad khoobsurat yade jinhe bar bar yad karne ko ji chahe...
ReplyDelete'सिलबट्टे पर पिसे मसलों की सुगंध' ...बीते दिनों की महक देती है यह कविता..
ReplyDeleteयाद आना स्वाभाविक भी है।
ReplyDeleteसादर
बहुत ही प्यारी रचना.
ReplyDeleteसुन्दर...:-)
सच कहा बीते पल बहुत याद आते हैं
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteचूल्हा और सिलबट्टा कभी
मैने भी कहीं देखा था
याद दिलाया आपने
तो याद आया !
बहुत ही सुन्दर…….शहरो में ये सब चीजें जैसे कहीं खो गयी हैं |
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी कविता
ReplyDeleteउन दिनों से डोर बंधी रहे .. !
ReplyDeleteसच बहुत याद आते हैं वो दिन....
ReplyDeleteमगर क्यूँ न ज़रा सी कोशिश की जाय और फिर से जिया जाय उन दिनों को....
क्या मुश्किल है सिल पर मसाले पीसना या खुली छत पर तारे गिनते सोना :-)
सादर
अनु
waah ..Awesome ! Nostalgia overpowering me.
ReplyDeleteवह सहज-सुन्दर जीवन सदा को बीत गया ,प्रकृति के तालमेल में जिये गए दिन अब कहाँ!
ReplyDeleteकुछ पुरानी यादों को सुलगा दिया है आपने ... वो लम्हे जाते नहीं जेहन से ...
ReplyDeleteकल 18/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
took me back to a "past" time, feeling nostalgic and over whelmed.
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