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Monday 14 September 2015

सहज सरल है माँ सी हिन्दी,


हिन्दी ने पंचम फहराया,देश मेरा उठ आगे आया
अखण्ड़ जोत जली हिन्दी की,हर अक्षर में माँ को पाया

सहज सरल है माँ सी हिन्दी,है मॄदुल अमृत रस खान
भर आँचल में प्यार बाँटती,देती निजता की पहचान

निर्मल श्रोत है ग्यान अपार,सुगम इसका हर छंद विधान
वेद पुराणों की वाणी ये ,बसा हर अक्षर में भगवान

बढ़ रही शाखे हिन्दी की,है विश्व में वट वृक्ष समान
फिर क्यों न मिले हिन्दी को.निज देश मे भी उचित सम्मान

हिन्दी गूँजे दिशा दिशा में,लिखुँ कुछ ऐसा मैं रस गान

हिन्दी है आवाज़ हिन्द की,करती रहूँ सदा गुणगान

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  महेश्वरी कनेरी

Wednesday 15 July 2015

फुहार (हायकू)

  मित्रों आज बहुत दिनो बाद ब्लांग मे आना हुआ...यहा बहुत कुछ बदला हुआ सा है ..कितनो के ब्लांग मे कोमेन्ट के लिए जगह ही नही मिली..बहुत कुछ समझ नही आया  खैर किसी तरह ये पोस्ट डाल रही हूं..आगे ्से यहां निरन्तर बनी रहुँगी,,,,


 फुहार पर कुछ हायकू लेकर प्रस्तुत हूँ

फुहार

गाएं फुहार
सखी,गीत हजार 
आई बहार
सावनी घटा
घीर आई सखी री
सुन पुकार
देखो सावन
बरसे रिम झिम
प्यास बुझाए
नन्ही फुहार
भीगोए तन मन
अब की बार
बूंद बूंद यूं
गिरते पात पर
मोती हो जैसे

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महेश्वरी कनेरी 

Saturday 9 May 2015

मां



तेरी गोद से उतर कर,तेरी अंगली पकड़ कर 

मां… मैंने  चलना सीख लिया

मत हो उदास, देख मैं चल सकता हूं…

दुनिया के इस भीड़ के संग, भले ही मैं दौड़ नहीं पाता

पर, धीरे धीरे चल कर, पहुंच ही जाऊंगा वहां

जहां तू मेरे लिए अकसर सपने बुना करती है

ये नीला आसमान कब से मुझे, ललकार रहा है

एक बार उसे छू लेना चाहता हूं मैं

बस मुझ में हौसले की उडा़न और भर दे मां

मत हो उदास, देख मैं चल सकता हूं..

मुझे दया नहीं बस प्यार चाहिए 
          
तेरी आशीषों की कुछ बौछार चाहिए

भले ही रास्ता थोड़ा कठिन है

पर तेरी ममता की छांव भी तो मेरे संग है

दुनिया के हर रंग में, मैं रंग जाना चाहता हूं मां

मत हो उदास देख मैं चल सकता हूं…


       ********************
महेश्वरी कनेरी

Saturday 28 March 2015

यादों के कुछ अनमोल सफर ( संस्मरण )


                      यादों के कुछ अनमोल सफर

      सफेद धोती ,कुर्ता सिर पर गाधी टोपी, गले में मफलर, गेहुँआ रंग,चमकती आँखें, चेहरे में निश्छल सी हँसी,चाल में गजब की फुर्ती और बातों में अपनापन ऐसे व्यक्तित्व से जब मैं पहली बार मिली मेरा मन श्रद्धा से नतमस्तक होगया ।
     श्री एस.एन पाटिल (गुरुजी) केन्द्रीय विद्यालय एफ.आर .आई. में एक संगीत शिक्षक के रुप में आए और बच्चों के लिए वरदान बनगए । ये मेरा सैभाग्य था कि एक सहायक शिक्षिका ,अभिभावक और शिष्या के रुप में मुझे काफी समय तक उनके साथ रहने का अवसर मिला   ।आज इतने वर्षो बाद जब उनके विषय में सोचती हूँ तो उनकी सादगी उनके विचार उनका अनुशासन, उनका वो समर्पण सभी एक एक कर चल चित्र की भाँति मेरे आँखों के सामने आते जाते हैं।
   गुरु जी एक लोह पुरुष थे.. साथ ही इतने सह्रद्य कि किसी के भी दुख में उनकी आँखे बरबस छलक जाती ।
निम्न पंक्तियाँ मानो उन्ही के लिए लिखी गई हो।
                     “मैंने उसको जब जब देखा लोहा देखा,
               लोहे जैसे तपते देखा
               गलते देखा ,ढलते देखा, 
          मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा”
     जिन दिनों संगीत के नाम पर विद्यालयों में बच्चे कुछ देश भक्ति गीत तथा भजन गाया करते थे ,वहाँ गुरु जी ने शुद्ध शास्त्रीय संगीत से उन्हें अवगत करवाया।  मुझे याद है स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे अपना अपना बैग सम्भाले संगीत कक्ष की ओर भागते नजर आते थे ,कोई हारमोनियम कोई बासुरी कोई तबला और कोई स्वर साधना में लग जाता ।पूरा विद्यालय संगीत की मधुर गूँज से गुंजायमान हो जाता ।मैं भी छुट्टी के बाद घर जाकर अपनी बेटी स्वाति को गुरु जी की कक्षा में लाकर बैठा देती ,उस वक्त वो शायद पाँच छ: वर्ष की रही होगी । धीरे धीरे समय बीतता गया और संगीत के प्रति उस का रुझान भी बढ़ता गया ।सब से बड़ी बात ये थी कि गुरु जी की बताई हुई हर बात, हर सीख को वो अन्य बच्चों की भाँति अपने जीवन में ढ़ालने लगी थी,ये मेरे लिए बहुत बड़ी उपल्बधि थी । छ:सात साल से लेकर तीस पैतीस साल तक के छॊटे बड़े सभी तरहके शिष्य थे .जो गुरुजी के पास कुछ न कुछ सीखने आया करते थे
    वास्तव में गुरु जी सिर्फ एक शिक्षक ही नहीं वे एक सशक्त गुरु थे जिन्होंने बच्चों के कर्म की क्यारी में हमेशा संस्कारो के ऐसे बीज बोए, जिससे वे अपने जीवन को तराश कर तपा कर कुंदन बना सकें ।
    छोटे –छोटे बच्चों को गुरु जी की गोदी में बैठ कर कहानियाँ किस्से सुनना बहुत अच्छा लगता था । गुरु जी के बताई हुई हर बात बच्चों के मन में पत्थर की लकीर बन जाया करती थी। इतना ही नहीं उनकी तीसरी अनुभवी आँख जो बच्चों के मन को अंदर तक जा कर पढ़ लेती थी ।इसी लिए बच्चे उनसे कोई बात नही छुपाते थे खुल कर अपनी समस्या उनके सामने रखते थे।
   प्राकृति की गोद में बसा वो छोटा सा गाँव बानगंगा जिसे कोई कैसे भूल सकता है । वही गुरु जी का एक छॊटा सा आश्रम था जो किसी गुरुकुल से कम न होगा। छुट्टी के दिन बच्चों का वहाँ जमघट सा लग जाता था । एक बड़े से पतीले में वहाँ जो खाना बनता था उसका स्वाद मैं कभी भूला नहीं सकती ।संगीत के साथ साथ गुरु जी बच्चों की स्कूली पढ़ाई पर भी ध्यान देते थे । कमजो़र विषयों को बच्चे एक दूसरे की सहायता से साधने की कोशिश करते। सुन्दर प्रकृतिक वातावरण और गुरु जी का सशक्त नेतृत्व कब और कैसे बच्चों के व्यक्तित्व को धीरे धीरे तरासता रहा निखारता रहा पता ही न चला।
  आज गुरु जी् की कई शिष्याएं संगीत की अध्यापिका के रुप में स्कूल और कालेजो में कार्यरत है । इसके अतिरिक्त चित्रकला मूर्तिकला में भी बहुत अच्छा काम कर रहीं हैं । जिन ब्च्चो ने संगीत को अपना व्यवसाय नही भी बनाया लेकिन उनके जीवन में आज भी गुरु जी की सीख का गहरा छाप दिखाई देता है
वास्तव में गुरु जी उस महान नदी के समान थे जिसने अपने आस-पास की जमीन को हरा-भरा और उर्वरा कर जीवन दिया और स्वयं महा सागर में विलीन होगए ।
                       ************      
                                   महेश्वरी कनेरी
                           


             

Monday 23 February 2015

फागुन

फागुन पर कुछ हाइकु आप की नजर  
रंग बिखरा
खिला मन आँगन
आया फागुन

आया फागुन
झूमे है कण कण
धरती मगन

ढोल मृदंग
बाजे है घर घर
नाचे अम्बर

लिखी हैपाती
उर रंग भिगोये
कब आओगे
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Sunday 1 February 2015

पाखी की पंखुरी (कहानी)


           


पाखी की पंखुरी  (कहानी)

    जैसे ही मैंने डोरबैल पर अपनी अँगुली रखी ट्रिनन ट्रिनन कर वो इतनी जोर से चीखी जैसे किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो । ।मैने झट से हाथ हटा लिया , तभी अंदर से धीमी सी आवाज सुनाई दी, ‘आरहे हैं….. ‘मैं थोड़ी सी सतर्क हो कर खडी़ हो गई, तभी धीरे से दरवाजा खुला ,देखा, मठमैली सी मुचडी़ हुई साडी़ बिखरे हुए बाल, बुझा सा चेहरा लिए एक स्त्री मेरे सम्मुख खड़ी थी।मैं कुछ समझ पाती कि उससे पहले ही वो, ‘दीदी.. ! इतने दिनों बाद’ ?..कह मेरे गले से लग गई, बाकी के शब्द शायद इसके रुंधे हुए गले के अंदर ही अटक कर रह गए । हल्के से उसकी पीठ थपथपाते हुए ,मैं बस इतना ही कह पाई.. ‘ये क्या हाल बना रखा है मीता .तुमने ….?’
    तभी वहाँ एक दुबली पतली सी लगभग सत्रह अठारह वर्ष की लड़की आगई और मीता को सम्भालते हुए कहने लगी,‘माँ की तवियत काफी दिनों से खराब चल रही है’.. और मीता को उसने वही बिछे हुए तखत पर बैठाया फिर मुझ से कहने लगी आप बैठिए आँटी ।मैं पानी लेकर आती हूँ ‘। उसे रोकते हुए मैंने पूछा,’सुनों बेटा ! तुम तो पाखी हो न..? कितनी बडी़ हो गई.. तुम्हें जब पहली बार देखा था तो इत्ती सी थी” कह मैंने मीता की तरफ मुस्काते हुए देखा वो अभी तक संभल चुकी थी .हल्के से बोल उठी,’पाखी तुम्हारी वो संध्या् मासी हैं न उनकी ये बहुत पक्की सहेली हैं और मेरी दीदी । इनके चरण छूकर इनको प्रणाम करो बेटा ‘। जैसे ही वो मेरे चरण छूने झुकी मैंने उसे ह्रदय से लगा लिया,और सोचने लगी मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्म उसे कहाँ से कहाँ लाकर मिला देता है ।
    आज भी मुझे याद है जब इस बच्ची को मीता ने गोद लिया था तो इसका नामकरण संस्कार बहुत ही धूम धाम से मनाया गया था ,पर उस वक्त कुछ कारणवश मैं जा न सकी थी ,पर बच्ची को देखने का मोह भी छोड़ न पाई ,फिर देहरादून से हरिद्वार ज्यादा दूर भी तो न था इस लिए अगले ही हफ्ते मैं अपने बच्चों को लेकर वहाँ पहुँच गई ।हमें देख कर मीता की खुशी का ठिकाना न था । मैंने देखा तांत की पीले बार्डर वाली सुन्दर साड़ी ,माथे में लाल बड़ी सी बिंदी ,आवाज में वही खनक ,चेहरे में मातृ सुख की अद्भुत दमक, बात चीत में वही अपनापन । मैंने बच्ची को प्यार करते हुए पूछा ,’क्या नाम रखा है इसका ..? मुस्कुराते हुए बोली ,’पाखी’ ..सच में जितनी प्यारी बच्ची थी उतना ही प्यारा नाम भी ।
    मैंने बातों ही बातों में पूछ ही लिया ,’इतना अनमोल हीरा तुम्हें कहाँ से मिला..मीता.. ?”हँसते हुए वो बोली ,”छप्पर फाड़ के मेरी झोली में आ गिरी ।‘ फिर थोडी गम्भीर हो कहने लगी ‘ये तो भाग्य की बात है दीदी.. एक दिन हम गंगा जी के किनारे टहल रहे थे, अचानक बच्चे की रोने की आवाज सुनाई दी ,तभी देखा एक साधु की गोद में एक छोटा सा बच्चा ,जिसे वे चुप कराने में लगे हुए थे । पूछने पर उन्होंने ने बताया कि , वे एक दिन गंगा स्नान कर वापस लौट रहे थे तो ये बच्ची उन्हें वही झाडी़ में पडी़ हुई मिली । ईश्वर की ज्ञा मानकर वे इसे उठा लाए और बताया कि पन्द्रह दिन से भी ऊपर हो गए पर कोई इसे खोजने भी नहीं आया, फिर शायद इसे भूख लगी है कह वे बच्ची को ले आगे बढ़ गए । हम खड़े सोचते ही रहे । फिर थोड़ी देर बाद हम भी वही पहुँच गए, जहाँ वे बच्ची के लिए दूध खरीद रहे थे । हमने हाथ जोड़ विनती के स्वर में उनसे कहा ,बाबा हमारी कोई संतान नहीं है , हम इस बच्ची को गोद लेना चाहते हैं , इसकी बहुत अच्छी परवरिश करेंगे , हम पर विश्वास करें आप.. … । बाबा ने थोड़ी देर सोचा फिर ईश्वर की यही मर्जी कह बच्ची को मेरी गोद में देकर वहाँ से चले गए, फिर पीछे मुड़ कर न देखा
    सच दीदी… वो दिन हमारे लिए कितना सुखद और आश्चर्य से भरा हुआ था, ,कह नही सकती” । फिर थोड़ा रुक कर`कहने लगी “जब से ये हमारे घर आई है हमारी तो दुनिया ही बदल गई । कह बच्ची को अपने सीने से लगा लिया । ममत्व की वो सुखद अनुभूति आज भी मुझे याद है ।
      तभी मीता मेरा हाथ हिला कर बोली “कहाँ खोगई दीदी..? पानी पीलो।“ देखा तो पाखी पानी का गिलास लिए खडी़ थी । झेपते हुए मैंने पानी का गिलास उठा लिया और एक ही सांस में पी गई ।सोच रही थी कुछ यादें इतनी मीठी होती है कि छुड़ते नहीं बनती ।
      पानी का खाली गिलास उठाते हुए पाखी बोली “माँ आप दोनों बातें करो मैं चाय लेकर अभी आती हूँ” मीता बोली “बेटा चाय में अदरक जरुर डालना दीदी को अदरख वाली चाय बहुत पसंद है”मैंने मुस्काते हुए पूछा,”तुम्हे अब तक याद है ?”वो बोली मैं कुछ भी नहीं भूली हूँ” कह एक हल्की सी सहज हँसी उसके उदास चेहरे में खिल उठी…..फिर मेरा हाथ पकड़ कर वो बोली , “और सुनाओ दीदी कैसी हो..? जीजा जी कैसे हैं ? बच्चे क्या कर रहे हैं..? अब तो वो बडे़ होगए होंगे न ?“ आदि आदि….।
     शायद मेरा हाल पूछ्कर वो अपना हाल छुपाना चाहती थी,और मैं इतने सालों से उनसे न मिल पाने का बहाना तलाश रही थी । कहाँ से शुरु करुँ समझ नही पारही थी । फिर भी बहुत हिम्मत करके मैने कहा “तुम्हारे जीजाजी का मुंबई ट्रांस्फर हो गया था बस वही फंसे रहगए । इतने सालों बाद अब देहरादून आना हुआ ।,” संध्या से तुम्हारे बारे में पता चला,” फिर कुछ रुक कर मैंने उसका हाथ पकडा़ और  धीरे से बोली ,”इतना कुछ हो गया तुम्हारे साथ मुझे पता ही नहीं चला”। अभी मेरी बात पूरी भी नही हुई थी कि वह फिर सुबकने लगी । उसे चुप कराते हुए मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा ,”हिम्मत रखो मीता !सब ठीक हो जाएगा.. वक्त के साथ सब घाव भर जाते है” तभी पाखी चाय लेकर आगई और माँ को फिर यूँ रोते देख कहने लगी “जब से बाबा गए माँ बस रोती ही रहती है,अब आप ही समझाओ न मासी,”
     आँसू पोछते हुए मीता अपनी बेटी को देखती हुई धीरे से बोली,” मुझे अपनी नहीं दीदी  ! बस इसकी चिन्ता है, क्या होगा इसका..पता नहीं…” कह छत की ओर देखने लगी । मैंने उसे ढ़ाढ़स बधाते हुए कहा,” चिन्ता मत करो ,’ईश्वर ने कुछ न कुछ तो सोचा ही होगा ,उस पर विश्वास रखो ,दुख दिया है तो सुख भी देगा ।“
        चाय की प्याली से उठते हुए भाप को वो देखती रही , फिर गहरी सांस लेकर बोली ,”वो हमेशा कहते थे,अपनों के आस पास ही रहेंगे जिससे दुख सुख में एक दूसरे का सहारा होता है ।“ कह फिर रोने लगी । मैं उसके दर्द को समझ रही थी। मैंने खुद देखा था , कितने शान शौकत से रहते थे । कितनी मज़बूरी होगी, जब दो तीन साल के अंदर ही अपना नया घर बेचकर किराए के इस छोटे से मकान में आना पड़ा था।
  वैसे तो एक भरा पूरा परिवार था उसका, ससुराल से भी और मायके से भी…पर दुख में कब अपने पराए बन जाते है पता ही नही चलता ।
    पति की बीमारी में सब कुछ खत्म हो गया था ,बस एक उम्मीद और आस की डोरी थामे चल रहे थे पर एक दिन चुपके से काल ने वो डोरी भी झटक दी और बिलखने को रह गए थे बस माँ और बेटी ।
    मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ कर समझाते हुए कहा,’ देखो मीता ,ये दुख-सुख, धूप-छाव है आते है और चले भी जाते हैं जैसे हम अपने हिस्से का सुख खुद ही भोगते है तो दुख भी तो खुद ही भोगना है न ?
      अपनी आँखें पोछते हुए उसने धीरे से कहा,’! मेरे भाग्य में जो भी है वो तो मुझे भोगना ही है ,ये मैं जानती हूँ दीदी! पर इस मासूम का क्या दोष ?कह अचानक चुप हो गई ,पाखी आकर चाय की खाली प्याली उठाने लगी । मैंने सिले हुए मौन दीवारों की तरफ ध्यान से देखा, वे भी वक्त की मार से शायद रिस रहे थे ।
     मैंने पाखी को अपने पास बिठा्या और प्यार से पूछा, आजकल क्या कर रही हो बेटा ? उसने सहज भाव से मुस्काते हुए कहा ,मासी मैं बी.काम.फाईनल में हूँ “आगे क्या करने का विचार है ?मैने फिर उससे पूछा.. ,”इसके बाद मैं जाब करना चाहती हूँ ।‘कह वो चुप होगई, मैंने बात आगे बढ़ाते हुए फिर पूछा ..तुम जाब यही करना चाहती हो या फिर बाहर जाना चाहोगी..? कुछ सोचते हुए वो बोली मौसी अगर यहाँ अच्छी नौकरी मिलगई तो यही करुँगी..नहीं तो बाहर ही जाना पड़ेगा..माँ को भी साथ लेके जाऊँगी उन्हें अकेले कैसे छॊड़ सकती हूँ मासी “ । ये सुन कर मुझे बहुत राहत मिली  ।
    मीता अपनी बेटी को गर्व से देखती हुई बोली, बेचारी पर सारे घर का बोझ आ पड़ा है , कालेज से आने के बाद शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई का खर्च खुद ही निकाल लेती है ।सोचा था राजकुमारी की तरह रखुँगी पर क्या करुँ… अभी वाक्य पूरा भी न कर पाई कि पाखी बोल उठी, ‘माँ क्या कह रही हो ? क्या हुआ मुझे…? सब ठीक तो है,,
      मैंने भी पाखी की तरफदारी करते हुए कहा,”ठीक कह रही है पाखी… ये एक समझदार बेटी है, तू बेकार की चिन्ता करती है…।‘क्यों ठीक है न’..कहते हुए मैंने खिड़की से बाहर देखा ,झुरमुट अँधेरा होने लगा था ।पार्क में से खेलते हुए बच्चों की आवाजें भी आनी बंद होगई थी ।मैंने उठते हुए कहा अब मुझे चलना चाहिए ,बातों ही बातों में समय का पता ही न चला ।
      ‘बहुत अच्छा लगा दीदी.. आप आई,  फिर आना ! कह मीता उदास मन से मुझे दरवाजे तक छोड़ने आई। पाखी मेरे चरण छूने जैसे ही झुकी मैंने फिर उसे गले से लगा लिया। बस चलते चलते इतना ही कह पाई ,बेटा माँ का ख्याल रखना .अब तो तुम दोनों ही एक दूसरे का सहारा हो…। कह भारी मन लिए मैं घर वापस चली आई
   फिर मिलना ही न हो पाया.. बच्चों की शादी व्याह में बुलावा भेजा था पर वो न आ पाई ।फिर एक दिन सुनने में आया कि मीता ने  बहुत ही सूक्ष्म तरीके से पाखी की शादी कर दी ,सुन कर बहुत अच्छा लगा ।
     समय ने फिर करवट बदला । इतने वर्षो बाद आज मीता मुझे अचानक मिली। अब वो आँसू बहाने वाली मीता नही थी बल्कि वही पुरानी वाली हँस मुख मीता थी । वही खनकती आवाज,वही मुस्कान, बातो में वही अपनापन । वक्त ने शायद फिर उसकी झोली में इतनी खुशियाँ भर दी थी कि पिछले दर्द का निशान भी अब धुमिल पड़ चुके थे।
       उसके चेहरे में आज मैंने एक अलग सी चमक देखी । मौका देखकर मैने पूछ ही लिया, “कैसी हो मीता  ? सुना पाखी की शादी कर दी ,अच्छा किया तुमने ..वो खुश तो है न..?” मेरे इतने सारे सवालो का उसने मुस्काते हुए बड़े ही धैर्य से उत्तर दिया ,”आप सब का आशीर्वाद है दीदी.……..मुझे लगता है मेरी जिन्दगी फिर से लौट आई है..रुको मैं एक चीज दिखाती हूँ..”कह उसने झट से अपने पर्स से मोबाइल निकाला और उसमें से एक छोटी सी बच्ची की फोटो दिखाते हुए बोली,”देखो दीदी ये मेरी पाखी की पंखुरी है..”  ” दीदी मेरा तो सारा समय इसी के साथ निकल जाता है.. कब सुबह हुई कब शाम.. पता ही नही चलता “ वो बडे़ ही उत्साह से बिना रुके बताए जारही थी .. तभी किसी ने उसे आवाज दी,”अभी आती हूँ दीदी “कह वो वहाँ से चली गई.., और मैं शून्य में उस ईश्वर को तलाशने में लगी ,ताकि उसकी अद्भुत लीला को समझ सकूँ ।

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