जैसे ही मैंने डोरबैल पर अपनी अँगुली
रखी ट्रिनन ट्रिनन कर वो इतनी जोर से चीखी जैसे किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया
हो । ।मैने झट से हाथ हटा लिया , तभी अंदर से धीमी सी आवाज सुनाई दी, ‘आरहे हैं…..
‘मैं थोड़ी सी सतर्क हो कर खडी़ हो गई, तभी धीरे से दरवाजा खुला ,देखा, मठमैली सी मुचडी़ हुई साडी़ बिखरे हुए बाल, बुझा सा चेहरा लिए एक स्त्री मेरे सम्मुख खड़ी थी।मैं कुछ
समझ पाती कि उससे पहले ही वो, ‘दीदी.. ! इतने दिनों बाद’ ?..कह मेरे गले से लग
गई, बाकी के शब्द शायद इसके रुंधे हुए गले के अंदर ही अटक कर रह गए । हल्के से उसकी
पीठ थपथपाते हुए ,मैं बस इतना ही कह पाई.. ‘ये क्या हाल बना रखा है मीता .तुमने ….?’
तभी वहाँ एक दुबली पतली सी लगभग सत्रह
अठारह वर्ष की लड़की आगई और मीता को सम्भालते हुए कहने लगी,‘माँ की तवियत काफी दिनों
से खराब चल रही है’.. और मीता को उसने वही बिछे हुए तखत पर बैठाया फिर मुझ से कहने
लगी आप बैठिए आँटी ।मैं पानी लेकर आती हूँ ‘। उसे रोकते हुए मैंने पूछा,’सुनों बेटा
! तुम तो पाखी हो न..? कितनी बडी़ हो गई.. तुम्हें जब पहली बार देखा था तो इत्ती सी
थी” कह मैंने मीता की तरफ मुस्काते हुए देखा वो अभी तक संभल चुकी थी .हल्के से बोल
उठी,’पाखी तुम्हारी वो संध्या् मासी हैं न उनकी ये बहुत पक्की सहेली हैं और मेरी दीदी
। इनके चरण छूकर इनको प्रणाम करो बेटा ‘। जैसे ही वो मेरे चरण छूने झुकी मैंने उसे
ह्रदय से लगा लिया,और सोचने लगी मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्म उसे कहाँ से कहाँ लाकर
मिला देता है ।
आज भी मुझे याद है जब इस बच्ची
को मीता ने गोद लिया था तो इसका नामकरण संस्कार बहुत ही धूम धाम से मनाया गया था ,पर
उस वक्त कुछ कारणवश मैं जा न सकी थी ,पर बच्ची को देखने का मोह भी छोड़ न पाई ,फिर देहरादून
से हरिद्वार ज्यादा दूर भी तो न था इस लिए अगले ही हफ्ते मैं अपने बच्चों को लेकर वहाँ
पहुँच गई ।हमें देख कर मीता की खुशी का ठिकाना न था । मैंने देखा तांत की पीले बार्डर
वाली सुन्दर साड़ी ,माथे में लाल बड़ी सी बिंदी ,आवाज में वही खनक ,चेहरे में मातृ सुख
की अद्भुत दमक, बात चीत में वही अपनापन । मैंने बच्ची को प्यार करते हुए पूछा ,’क्या
नाम रखा है इसका ..? मुस्कुराते हुए बोली ,’पाखी’ ..सच में जितनी प्यारी बच्ची थी उतना
ही प्यारा नाम भी ।
मैंने बातों ही बातों में पूछ ही
लिया ,’इतना अनमोल हीरा तुम्हें कहाँ से मिला..मीता.. ?”हँसते हुए वो बोली ,”छप्पर
फाड़ के मेरी झोली में आ गिरी ।‘ फिर थोडी गम्भीर हो कहने लगी ‘ये तो भाग्य की बात है
दीदी.. एक दिन हम गंगा जी के किनारे टहल रहे थे, अचानक बच्चे की रोने की आवाज सुनाई
दी ,तभी देखा एक साधु की गोद में एक छोटा सा बच्चा ,जिसे वे चुप कराने में लगे हुए
थे । पूछने पर उन्होंने ने बताया कि , वे एक दिन गंगा स्नान कर वापस लौट रहे थे तो
ये बच्ची उन्हें वही झाडी़ में पडी़ हुई मिली । ईश्वर की आज्ञा मानकर वे इसे उठा लाए
और बताया कि पन्द्रह दिन से भी ऊपर हो गए पर कोई इसे खोजने भी नहीं आया, फिर शायद इसे
भूख लगी है कह वे बच्ची को ले आगे बढ़ गए । हम खड़े सोचते ही रहे । फिर थोड़ी देर बाद
हम भी वही पहुँच गए, जहाँ वे बच्ची के लिए दूध खरीद रहे थे । हमने हाथ जोड़ विनती के
स्वर में उनसे कहा ,बाबा हमारी कोई संतान नहीं है , हम इस बच्ची को गोद लेना चाहते
हैं , इसकी बहुत अच्छी परवरिश करेंगे , हम पर विश्वास करें आप.. … । बाबा ने थोड़ी देर
सोचा फिर ईश्वर की यही मर्जी कह बच्ची को मेरी गोद में देकर वहाँ से चले गए, फिर पीछे
मुड़ कर न देखा ।
सच दीदी… वो दिन हमारे लिए कितना सुखद और आश्चर्य
से भरा हुआ था, ,कह नही सकती” । फिर थोड़ा रुक कर`कहने लगी “जब से ये
हमारे घर आई है हमारी तो दुनिया ही बदल गई ।“ कह बच्ची को अपने सीने
से लगा लिया । ममत्व की वो सुखद अनुभूति आज भी मुझे याद है ।
तभी मीता मेरा हाथ हिला कर बोली
“कहाँ खोगई दीदी..? पानी पीलो।“ देखा तो पाखी पानी का गिलास लिए खडी़ थी । झेपते हुए
मैंने पानी का गिलास उठा लिया और एक ही सांस में पी गई ।सोच रही थी कुछ यादें इतनी
मीठी होती है कि छुड़ते नहीं बनती ।
पानी का खाली गिलास उठाते हुए पाखी
बोली “माँ आप दोनों बातें करो मैं चाय लेकर अभी आती हूँ” मीता बोली “बेटा चाय में अदरक
जरुर डालना दीदी को अदरख वाली चाय बहुत पसंद है”मैंने मुस्काते हुए पूछा,”तुम्हे अब
तक याद है ?”वो बोली मैं कुछ भी नहीं भूली हूँ” कह एक हल्की सी सहज हँसी उसके उदास
चेहरे में खिल उठी…..फिर मेरा हाथ पकड़ कर वो बोली , “और सुनाओ दीदी कैसी हो..? जीजा
जी कैसे हैं ? बच्चे क्या कर रहे हैं..? अब तो वो बडे़ होगए होंगे न ?“ आदि आदि….।
शायद मेरा हाल पूछ्कर वो अपना
हाल छुपाना चाहती थी,और मैं इतने सालों से उनसे न मिल पाने का बहाना तलाश रही थी ।
कहाँ से शुरु करुँ समझ नही पारही थी । फिर भी बहुत हिम्मत करके मैने कहा “तुम्हारे
जीजाजी का मुंबई ट्रांस्फर हो गया था बस वही फंसे रहगए । इतने सालों बाद अब देहरादून
आना हुआ ।,” संध्या से तुम्हारे बारे में पता चला,” फिर कुछ रुक कर मैंने उसका हाथ
पकडा़ और धीरे से बोली ,”इतना कुछ हो गया तुम्हारे साथ मुझे पता ही नहीं चला”। अभी मेरी
बात पूरी भी नही हुई थी कि वह फिर सुबकने लगी । उसे चुप कराते हुए मैंने उसके कंधे
पर हाथ रखकर कहा ,”हिम्मत रखो मीता !सब ठीक हो जाएगा.. वक्त के साथ सब घाव भर जाते
है” तभी पाखी चाय लेकर आगई और माँ को फिर यूँ रोते देख कहने लगी “जब से बाबा गए माँ
बस रोती ही रहती है,अब आप ही समझाओ न मासी,”
आँसू पोछते हुए मीता अपनी बेटी
को देखती हुई धीरे से बोली,” मुझे अपनी नहीं दीदी
! बस इसकी चिन्ता है, क्या होगा इसका..पता नहीं…” कह छत की ओर देखने लगी । मैंने
उसे ढ़ाढ़स बधाते हुए कहा,” चिन्ता मत करो ,’ईश्वर ने कुछ न कुछ तो सोचा ही होगा ,उस
पर विश्वास रखो ,दुख दिया है तो सुख भी देगा ।“
चाय की प्याली से उठते हुए
भाप को वो देखती रही , फिर गहरी सांस लेकर बोली ,”वो हमेशा कहते थे,अपनों के आस पास
ही रहेंगे जिससे दुख सुख में एक दूसरे का सहारा होता है ।“ कह फिर रोने लगी । मैं उसके
दर्द को समझ रही थी। मैंने खुद देखा था , कितने शान शौकत से रहते थे । कितनी मज़बूरी
होगी, जब दो तीन साल के अंदर ही अपना नया घर बेचकर किराए के इस छोटे से मकान में आना
पड़ा था।
वैसे तो एक भरा पूरा परिवार था उसका,
ससुराल से भी और मायके से भी…पर दुख में कब अपने पराए बन जाते है पता ही नही चलता ।
पति की बीमारी में सब कुछ खत्म
हो गया था ,बस एक उम्मीद और आस की डोरी थामे चल रहे थे पर एक दिन चुपके से काल ने वो
डोरी भी झटक दी और बिलखने को रह गए थे बस माँ और बेटी ।
मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ कर
समझाते हुए कहा,’ देखो मीता ,ये दुख-सुख, धूप-छाव है आते है और चले भी जाते हैं जैसे
हम अपने हिस्से का सुख खुद ही भोगते है तो दुख भी तो खुद ही भोगना है न ?“
अपनी आँखें पोछते हुए उसने धीरे
से कहा,’! मेरे भाग्य में जो भी है वो तो मुझे भोगना ही है ,ये मैं जानती हूँ दीदी!
पर इस मासूम का क्या दोष ?”कह अचानक चुप हो गई ,पाखी आकर चाय की खाली प्याली
उठाने लगी । मैंने सिले हुए मौन दीवारों की तरफ ध्यान से देखा, वे भी वक्त की मार से
शायद रिस रहे थे ।
मैंने पाखी को अपने पास बिठा्या और प्यार से पूछा,” आजकल क्या कर रही हो
बेटा ?” उसने सहज भाव से मुस्काते
हुए कहा ,”मासी मैं बी.काम.फाईनल में हूँ” “आगे क्या करने का
विचार है ?”मैने फिर उससे पूछा.. ,”इसके बाद मैं जाब करना चाहती हूँ
।‘कह वो चुप होगई, मैंने बात आगे बढ़ाते हुए फिर पूछा ..तुम जाब यही करना चाहती हो या
फिर बाहर जाना चाहोगी..? कुछ सोचते हुए वो बोली मौसी अगर यहाँ अच्छी नौकरी मिलगई तो
यही करुँगी..नहीं तो बाहर ही जाना पड़ेगा..माँ को भी साथ लेके जाऊँगी उन्हें अकेले कैसे
छॊड़ सकती हूँ मासी “ । ये सुन कर मुझे बहुत राहत मिली ।
मीता अपनी बेटी को गर्व से देखती
हुई बोली, बेचारी पर सारे घर का बोझ आ पड़ा है , कालेज से आने के बाद शाम को बच्चों
को ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई का खर्च खुद ही निकाल लेती है ।सोचा था राजकुमारी की तरह
रखुँगी पर क्या करुँ… ” अभी वाक्य पूरा भी न कर पाई कि पाखी बोल उठी,
‘माँ क्या कह रही हो ? क्या हुआ मुझे…? सब ठीक तो है,,”
मैंने भी पाखी की तरफदारी करते हुए कहा,”ठीक कह रही
है पाखी… ये एक समझदार बेटी है, तू बेकार की चिन्ता करती है…”।‘क्यों ठीक है न’..कहते
हुए मैंने खिड़की से बाहर देखा ,झुरमुट अँधेरा होने लगा था ।पार्क में से खेलते हुए
बच्चों की आवाजें भी आनी बंद होगई थी ।मैंने उठते हुए कहा अब मुझे चलना चाहिए ,बातों
ही बातों में समय का पता ही न चला ।
‘बहुत अच्छा लगा दीदी.. आप आई, फिर आना ! “ कह मीता उदास मन से
मुझे दरवाजे तक छोड़ने आई। पाखी मेरे चरण छूने जैसे ही झुकी मैंने फिर उसे गले से लगा
लिया। बस चलते चलते इतना ही कह पाई ,बेटा माँ का ख्याल रखना .अब तो तुम दोनों ही एक
दूसरे का सहारा हो…। कह भारी मन लिए मैं घर वापस चली आई
फिर मिलना ही न हो पाया.. बच्चों
की शादी व्याह में बुलावा भेजा था पर वो न आ पाई ।फिर एक दिन सुनने में आया कि मीता
ने बहुत ही सूक्ष्म तरीके से पाखी की शादी
कर दी ,सुन कर बहुत अच्छा लगा ।
समय ने फिर करवट बदला । इतने वर्षो
बाद आज मीता मुझे अचानक मिली। अब वो आँसू बहाने वाली मीता नही थी बल्कि वही पुरानी
वाली हँस मुख मीता थी । वही खनकती आवाज,वही मुस्कान, बातो में वही अपनापन । वक्त ने
शायद फिर उसकी झोली में इतनी खुशियाँ भर दी थी कि पिछले दर्द का निशान भी अब धुमिल
पड़ चुके थे।
उसके चेहरे में आज मैंने एक
अलग सी चमक देखी । मौका देखकर मैने पूछ ही लिया, “कैसी हो मीता ? सुना पाखी की शादी कर दी ,अच्छा किया तुमने
..वो खुश तो है न..?” मेरे इतने सारे सवालो का उसने मुस्काते हुए बड़े ही धैर्य से उत्तर
दिया ,”आप सब का आशीर्वाद है दीदी.……..मुझे लगता है मेरी जिन्दगी फिर से लौट आई है..रुको
मैं एक चीज दिखाती हूँ..”कह उसने झट से अपने पर्स से मोबाइल निकाला और उसमें से एक
छोटी सी बच्ची की फोटो दिखाते हुए बोली,”देखो दीदी ये मेरी पाखी की पंखुरी है..” ” दीदी मेरा तो सारा समय इसी के साथ निकल जाता है..
कब सुबह हुई कब शाम.. पता ही नही चलता “ वो बडे़ ही उत्साह से बिना रुके बताए जारही
थी .. तभी किसी ने उसे आवाज दी,”अभी आती हूँ दीदी “कह वो वहाँ से चली गई.., और मैं
शून्य में उस ईश्वर को तलाशने में लगी ,ताकि उसकी अद्भुत लीला को समझ सकूँ ।
*****************
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-02-2015) को "डोरबैल पर अपनी अँगुली" (चर्चा मंच अंक-1877) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Aanhar aap ka
ReplyDeletebahut hi umda post..
ReplyDeleteसुन्दर, संवेदनशील ,पारिपरिक कहानी !
ReplyDelete: रिश्तेदार सारे !
बहुत खुबसुरत कहानी .....सुख दुःख जीवन की तराजू पर उतरते चढ़ते रहते है
ReplyDeleteभावपूर्ण और सुंदर कहानी !
ReplyDeleteबहुत ही सुंदरता से सुनाई पाँखी की पंखुरी
ReplyDeleteपाखी और पंखुरी दोनों ही बहुत सुन्दर नाम चुने कहानी के पात्रों के लिए.
ReplyDeleteपाखी की पंखुरी ....
अंत तक प्रवाह लिए हुए भावपूर्ण कहानी .अच्छी लगी .
बहुत ही मार्मिक कहानी है ...धन्यवाद ..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है
आज 07/ फरवरी /2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
.धन्यवाद .. यशवन्त
Deleteआपकी कहानी अच्छी है महेश्वरी जी .
ReplyDeleteAabhar aap ka
DeleteAabhar aap ka
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