abhivainjana


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Tuesday, 31 July 2012

मेरे जीवन की एक साँझ

 एक साँझ

सूरज ,अपनी स्वणिम किरणों को समेटे
पश्चिम दिशा की ओर धीरे- धीरे ढलता
उम्मीदों का सूर्ख रंग नभ में बिखेरे
मानो कह रहा हो …
“कल मैं फिर आऊँगा”
चौंच में दाना दबाए,घोंसले की ओर उड़ते पंछी
दूर से आती किसी चरवाह की
 बाँसुरी की मधुर धुन
घर वापस आते जानवरों का झुंड
गले की बजती घंटी की टुन- टुन
दुल्हन की तरह सजी साँझ
शर्माती सकुचाती
रात्रि के बाँहो में सिमटने को व्याकुल
प्रियतम के राह में बिछती
दीए की लौ और घनी होती जाती
ढलती संध्या की इस अनुपम छटा को
 देखने चाँद और तारे..भी
अपना मोह न छोड़ पाए
और उन्हें निहारते रहे
**************
ढलती संध्या के इस अनुपम सुन्दरता को देखते हुए सोचती हूँ कि क्या जीवन की ढलती संध्या भी इतनी ही सुन्दर होती  है…….?
                                                                                                         महेश्वरी कनेरी                                                                                             

Saturday, 21 July 2012

भोर की पहली किरण

भोर की पहली किरण 

अँधेरी रात की
 काली चादर को चीर
भोर की पहली किरण
जब धरती पर आई
सारी धरती सिन्दूरी रंग में रंगी
नव वधु सी शरमाई
शीतल मंद पवन ने छेड़ा
फिर जीवन का राग सुहाना
हिम शैल शिखर से फिसलती किरणें
घाटी पर आ सुस्ताई
अलसाई कलियों ने आँखें खोली
देख गुंजित भँवरे मुस्काए
रात कहर से भीगी थी
जो पलके फूलों की
चूम-चूम किरण
उनको सहलाए
निकले नीड़ से आतुर पंछी
स्वच्छंद गगन पर पंख फैलाए
दूर कहीं मंदिर की घंटी
मधुर ध्वनि से मुझे बुलाती
सत्यम शिवम सुन्दरम ,बस
यही भोर है मुझको भाती
यही भोर बस मुझे सुहाती 
******************
महेश्वरी कनेरी 

Tuesday, 17 July 2012

बेटी के नाम एक पत्र ( उसके जन्मदिन पर )

स्वाति (मेरी बेटी)

बेटी के नाम एक पत्र   ( उसके जन्मदिन पर )


सुखद अहसासों की नन्हीं बूँदों से
 मैं आज भीग रही हूँ
इस लिए नहीं कि आज तुम्हारा जन्म दिन है
इस लिए कि आज के ही दिन
ईश्वर ने वरदान स्वरुप
स्वाति नक्षत्र की एक मासूम सी बूँद को
 मेरी गोद में रख दिया था
और मैं एक बेटी की माँ बनी
मैने तुम में अपना प्रतिबिंब देखा
मुझे गर्व है कि मैंने एक शक्ति को जन्म दिया
लक्ष्मी दुर्गा और सरस्वती के रुप में
फिर कोई बाधा या मुश्किलें
 तुम्हारी राह में कैसे आसकती है ?
देखो प्रकृति का एक-एक कण
तुम्हें आशीष देरहा है
फलो फूलो सदा खुश रहो
आगे बढ़ो…….
और अपने
जीवन को सार्थक बनाओ
यहीं तुम्हारा धर्म है…
****
शुभकामनाओ सहित ..
 तुम्हारी माँ…..
१७ जुलाई २०१२

Sunday, 15 July 2012

बस यूँ ही….






        चाँद
चाँदनी को ढू़ँढ़ते -ढू़ँढ़ते परेशान
चाँद आज धरती पर उतर आया
    कभी पेड़ों के झुरमुठ से
    कभी घर की खिड़की से                                   
 झाँक -झाँक कर ढू़ँढ़ रहा बेचारा..



सूरज
तेज़ प्रखर सूरज
आज किस दुख से दुखी है
जो बादलो के पीछे छुप-छुप
कर आँसू बहा रहा है…




  तारे
आज सब के सब तारे न जाने कहाँ खो गए
मानो किसी ने एक एक को
चुन-चुन कर अपनी झोली में भर लिया
             और फिर कहीं रख कर भूल गया हो …

  बादल
किसी आतंकवादी की तरह
 इन काले-काले बादलों ने आज
 सारा आकाश घेर लिया है
और फिर भयानक स्वरों में
 गरज़ गरज कर मानो
 सब को डरा रहे रहे हों….


 बारिश
कोमल सी नन्हीं-नन्हीं वर्षा की ये बूँदें
बादलों के चुगुल से छूट कर
कितनी तेजी़ से धरती की ओर
 दौड़ती चली आरही हैं
जैसे पुराने साथियों से
मिलने की जल्दी हो..


  हवा
जब भी तुम आती हो
मेरे सारे पन्ने बिखेर देती हो
पर आज मैंने पहले ही से सम्भाल लिये हैं
अरे ! ये जानी पहचानी प्यारी सी खुशबू कैसी ?
क्या आज फिर तुम गुलमोहर से मिल कर आई हो ?



धरती
तृप्त सी हरी भरी धरती
 सज-धज कर निश्चिंत सी चली जा रही है
शायद आज किसी सीता का इंतजार नहीं है…
****
महेश्वरी कनेरी


Monday, 9 July 2012

आओ खेले बचपन- बचपन


खिड़की खोलो
शुद्ध हवा को आने दो
घुट-घुट कर क्यों जीते हो
मन में खुशियां छाने दो
भूल जाओ सब उलझन
आओ खेले बचपन- बचपन


भरी दोपहरी पेड़ के नीचे
जामुन चुन-चुन खाते
तेरा गुड्ड़ा मेरी गुड्डी
कैसे व्याह रचाते
लड़ते भिड़ते फिर भी
 कितना था अपनापन
भूल जाओ सब उलझन
आओ खेले बचपन- बचपन



रिमझिम सी बारिश में
कागज़ की नाव बनाते
कुछ डूबते कुछ तैरते
देख- देख खुश होते
छोटी-छोटी खुशियों से
 भर जाता था आँगन
भूल जाओ सब उलझन
आओ खेले बचपन- बचपन



पहन माँ की साडी सेंड़ल
 कभी टीचर बनजाते
ले हाथो में एक छडी
गिटर पिटर हम करते
कितना बेफिक्र सा 
भोला भाला था बचपन
भूल जाओ सब उलझन
आओ खेले बचपन- बचपन
******************
महेश्वरी कनेरी..

Friday, 6 July 2012

अगला जीवन

अगला जीवन 


जीवन की शाख पर बैठा
मन का पाखी
भोर का गीत सुनाता..
मैं कहती …
ये तो संध्या है
चीर निन्द्रा की आती बेला है
भोर बीते युग बीता
क्यों है याद दिलाता..?
बहुत जीया इस जीवन को
अब अगले सफर की बारी है
जीर्ण-क्षीण हुए इस चोगे को
बस बदलने की तैयारी है
ये तो जीवन चक्र है
इससे गुजरना पड़ता है
कैसा दुख , कैसा संताप
मोह माया ममता, तेरा मेरा
सब यही रह जाना है
जो मिला, यहीं मिला था
यहाँ का यहीं दे जाना है
खाली हाथ तो आये थे,
खाली हाथ ही जाना है
न भय न कोई चिन्ता
बस एक उत्सुकता है मन में
नया वेश नया परिवेश
कैसा होगा उस पार का देश..?
इस लिए हे पाखी ..
ऐसा कोई गीत सुना
जिससे चिर निन्द्रा में सो जाऊँ
फिर..
अगला जीवन भी तो जीना है…..


**********
महेश्वरी कनेरी

Monday, 2 July 2012

मेरे घनश्याम सलोने

मेरे घनश्याम सलोने

अवतरित हुए तुम आज
मेरे घनश्याम सलोने
अँजली भर-भर लाए नीर
तपित हिये की प्यास बुझाने
कब से तरसे व्याकुल
चातक मन अकुलाए
देख हर्षित तरंग उठे
कंपित अधर मुस्काए
धुले कलुष मन आज
भर-भर अश्रु बहाए
करते निर्मल जग को
पतित पावन कहलाए
हर्षित हुआ मन उपवन
आशा के पल्लव जागे
भाव बहे जीवन चले
घनश्याम जब तुम आए
***************
महेश्वरी कनेरी