खोटा सिक्का
चले थे खुद को
भुनवाने
दुनिया के इस बाजार
में.
पर खोटा सिक्का मान
ठुकरा दिया ज़माने ने
सोचा ! मुझमें ही कमी
थी
या, फिर वक्त का
साथ न था
समझ न पाये ,और चुप रह
गए
पर चैन न आया
और चल पडे
दुनिया को
जानने
देखा ! तो जाना ,
दुनिया कितनी अजीब है
झूठ,मक्कारी और खुदगर्ज़ी
के पलड़े में हर
रोज
इंसान यहाँ तुल
रहा
पलड़ा जितना भारी
इंसान उतना ही ऊँचा
किन्तु....
मेरे पास तुलने के लिए
कुछ न था
इसलिए नकारा गया
खोटा सिक्का जान
ठुकराया
गया ।
पर खुश हूँ मैं
दुनिया के इस झूठ
और मक्कार भरे
बाजार में
मुझे नहीं बिकना
मैं खोटा ही
ठीक हूँ ….
महेश्वरी कनेरी
खोटेपन ने बाज़ारी खेल से तो बचाया..... बड़ी सीख लिए है रचना
ReplyDeleteवाह...बेहद सटीक....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
सादर
अनु
बहुत सुंदर.... !
ReplyDeleteप्रेरणात्मक कविता..!
कल 23/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
सटीक ... दुनिया ऐसी ही है .. जो मकार, चालबाज नहीं उसको खोता कह के ठुकराया जाता है ...
ReplyDeleteखोटे में खोटा तो अच्छा ही हुआ।
ReplyDeleteईमानदारी की यही कीमत है आज
ReplyDeleteसार्थक रचना, सादर !
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteसार्थक भाव लिए बहुत ही सुंदर रचना ....
ReplyDeleteसही कहा इस खोटी दुनिया में खोटा होना ही ठीक है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDelete-प्रभावशाली
ReplyDeleteबहुत सुंदर---!!!!!
शुरू से ही सुनते आए हैं की वक़्त पड़ने पर खोटा सिक्का ही काम आता है
ReplyDeleteमैं खोटा ही ठीक हूँ ….बिलकुल..
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये
ReplyDeleteसुन्दर और सटीक रचना...
ReplyDelete:-)