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Sunday 23 September 2012

पगली की बेटी



बच्चे ताली बजाते
पगली-पगली कह चिल्लाते
बड़े , हट पगली कह धुतकारते
उसकी मासूम हरकतों पर हँसते
और… रात को …
अपनी हवस मिटाने उसे ले जाते
बचा कुचा खाना किसी ने डाल दिया तो खा लिया
नही तो कूड़े मे से कुछ ढ़ूँढ
अपना गुजारा कर लेती
मन का दर्द समझ नहीं पाती
पर ,तन के  दर्द से सुबक जाती
एक दिन लोगों का
कुकर्म बोल उठा…
और वह गर्भवती हो गई
प्रसव पीड़ा से दोहरी होती देख
कुछ भले लोगों ने उसे अस्पताल पहुँचा दिया
और वहाँ पर मैं पैदा हो गई
बिन बाप की बेटी…
मुझे देख माँ ने मुँह फेर लिया
और ज़ोर-जो़र से चिल्लाने लगी
 शायद परेशान होगी
बच्चों को बुरी नजर से बचाने के लिए
उनके माथे पर लोग काला टीका लगा देते है
पर मैं तो कलंक का टीका लगा कर ही पैदा हुई थी
मुझे क्या नज़र लगेगी..
माँ, कभी मुझे अपनी छाती से घंटों चिपकाए रखती
कभी जमीन पर पटक कर जो़र-जो़र से हँसती
सोचती होगी, मैं उसके लिए वरदान हूँ या अभिशाप.
मेरा और बच्चों की तरह नामकरण तो नहीं हो पाया
पर लोग मुझे -पगली की बेटी कह कर पुकारने लगे
धीरे-धीरे मैं बड़ी होती गई और
माँ कमजो़र होती रही
लोगों से जो मिल जाता
वही खाकर हम दोनों गुजारा कर लेते
अब लोगों की नज़रें माँ पर कम
मुझ पर अधिक पड़ने लगी
एक दिन मैं खाने के लिए कुछ जुटाने निकली
आकर देखा तो माँ के आस पास भीड़ लगी थी
पता चला कि वो इस स्वार्थी दुनिया को छोड़ कहीं दूर चली गई
माँ को तो अपने दर्द से छुटकारा मिल गया
अब मेरा क्या होगा..?
मेरे सामने एक चुनौती  थी
इस दरिंदे समाज से क्या मैं
खुद को बचा पाऊँगी..? उनसे लड़ पाऊँगी…?
या फिर माँ की तरह ढह जाउँगी…..????
**************
महेश्वरी कनेरी

39 comments:

  1. झंजोड़ के रख दिया ....इस कड़वी सच्चाई ने ....
    काश! कि ये एक बुरे सपने की कोई रचना हो .......
    शुभकामनायें!

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  2. यह एक कड़वा सच जिसे पचा पाना बहुत कठिन उससे भी बड़ी त्रासदी लोगो का व्यवहार जिसे देखकर कोई भी शर्मा जाये . सत्य कथन के लिए आज मन नहीं आपको बधाई दूँ मन क्षुब्ध है

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  3. दर्दनाक ...कटु सत्य उकेरा है आज आपकी रचना ने ...
    काश ऐसे लोगों को शोषण की बजाये हमारा समाज संरक्षण दे पाए ....

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  4. समाज का रुक्ष पक्ष, मार्मिक अभिव्यक्ति।

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  5. व्यथित कर देने वाली सच्चाई है ........

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  6. भेडियों की दुनिया है ! दो पल भी सुकून का मिल जाए स्त्री को , वही काफी है...

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  7. स्तब्ध मनःस्थिति होती है...क्या कहूँ

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  8. अखंड सत्य बयां करती बेहतरीन मार्मिक रचना, हृदय को छू गई

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  9. मन को व्‍यथित करते रचना के भाव ...

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  10. कटु सत्य बयान करती रचना

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  11. बहुत सुंदर रचना
    क्या कहने

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  12. आह ! व्यथा से भर दिया..

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  13. bahut hi uadas dukhad sach se bhari rachna .......

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  14. दी मन बड़ा कमज़ोर होता है...स्वार्थी भी...शायद कायर भी...भगोड़ा भी...
    ऐसी रचना पढ़ना ही नहीं चाहता...
    मन रोना नहीं चाहता दी...बिलकुल नहीं...

    सादर
    अनु

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  15. बहुत मार्मिक..आँखें नम कर गई..

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  16. महेश्वरी जी बिलकुल आपकी इस रचना को पढ़ते पढ़ते मै खो गया इतने मार्मिक प्रसंग को बहुत ही सुन्दर शिल्प के एक जीवंत प्रस्तुति पर आपकी तारीफ के लिए वाकई शब्द कम पद रहे हैं .........हृदय से आपकी लेखनी को मेरा सादर प्रणाम है |

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  17. याद आ गयी मुझे
    अपने शहर की पगली
    एक बार नहीं कई बार
    जन्म दिया था उसने
    पता नहीं कितनी लाशें
    लाशें इसलिये कि पैदा
    होती तो थी रहती भी
    थी कुछ दिन गोद में
    और किसी दिन नाले में
    या नदी में डुबो कर
    मार डालती थी वो
    फिर निकल पड़ती थी
    मेरे शहर के दरिंदों की
    ओर बेखबर हमेशा की तरह !

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  18. एक तीखा व्यंग्य और मार्मिक रचना।

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  19. संवेदनशील अभिव्यक्ति..... समाज के दुखद पक्ष को सामने रखती हुयी.....

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  20. बहुत ही मार्मिक कविता


    सादर

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  21. आज 25/09/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  22. बहुत मार्मिक दिल को द्रवित करती हुई रचना उस बेटी के लिए बेटी दिवस के क्या मायने होंगे !!

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  23. बहुत कटु सत्य ...इस समाज की गन्दी मानसिकता का परिचय देती लेखनी ...

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  24. बहुत मार्मिक रचना है महेश्वरी जी ...

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  25. निःशब्द करती मार्मिक पंक्तियां।

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  26. गंभीर चिन्तन से उपजी एक मार्मिक कविता |

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  27. व्यथित कर देनेवाली रचना..
    बहुत ही मार्मिक

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  28. इस कविता में वह तथ्य है जिसे दुनिया जानती है, मानती है लेकिन उस महिला के हालात बदलने में श्रम नहीं करती है. ग़रीबी पगलाने वाले हालात को ही कहते हैं. उस तक सरकारी विकास योजनाओं को न पहुँचने देने का नाम ही भ्रष्टाचार है.
    मार्मिक कविता.

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  29. बहुत ही संवेदन शील अभिव्यक्ति समाज के कडवे सच को उजागर करती रचना...

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  30. अंतर्मन तक झंझोरती रचना..!!

    सुंदर..!!

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  31. महेश्वरीजी...नि:शब्द हूँ....आंसू रुकें तो कुछ बोलूँ...समाज ऐसा क्यों है ..इतना क्रूर..इतना निर्दयी..कभी कभी ग्लानी होती है सोचकर की मैं भी उसी समाज का हिस्सा हूँ ..!

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  32. झकझोर गई यह रचना...मृत संवेदना की दास्ताँ!!

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  33. अपने को इन्सान समझनेवाले लोग कितनी दरिन्दगी पर उतर सकते है - अच्छा लिखा है !

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  34. बहुत संवेदनशील प्रस्तुति. समाज में व्याप्त गंभीर समस्या पर प्रहार है यह रचना.

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  35. कविता के भाव एवं शब्द का समावेश बहुत ही प्रशंसनीय है। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

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  36. मार्मिक अभिव्यक्ति...क्या कहा जाये....एक बार ’पगली’ गद्य में यही कुछ दर्शाने का प्रयास किया था...http://udantashtari.blogspot.ca/2010/02/blog-post.html देखियेगा!!

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  37. कहने के लिए शब्द नही हैं मेरे पास.
    मूक हूँ,शर्मसार हूँ कि ऐसे समाज का हिस्सा हैं हम.

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