बच्चे ताली बजाते
पगली-पगली कह चिल्लाते
बड़े , हट पगली
कह धुतकारते
उसकी मासूम हरकतों
पर हँसते
और… रात को …
अपनी हवस मिटाने उसे
ले जाते
बचा कुचा खाना किसी
ने डाल दिया तो खा लिया
नही तो कूड़े मे से
कुछ ढ़ूँढ
अपना गुजारा कर लेती
मन का दर्द समझ नहीं
पाती
पर ,तन के दर्द से सुबक जाती
एक दिन लोगों का
कुकर्म बोल उठा…
और वह गर्भवती हो गई
प्रसव पीड़ा से दोहरी
होती देख
कुछ भले लोगों ने उसे
अस्पताल पहुँचा दिया
और वहाँ पर मैं पैदा
हो गई
बिन बाप की बेटी…
मुझे देख माँ ने मुँह
फेर लिया
और ज़ोर-जो़र से चिल्लाने
लगी
शायद परेशान
होगी
बच्चों को बुरी नजर
से बचाने के लिए
उनके माथे पर लोग काला
टीका लगा देते है
पर मैं तो कलंक का
टीका लगा कर ही पैदा हुई थी
मुझे क्या नज़र लगेगी..
माँ, कभी मुझे अपनी
छाती से घंटों चिपकाए रखती
कभी जमीन पर पटक कर
जो़र-जो़र से हँसती
सोचती होगी, मैं उसके
लिए वरदान हूँ या अभिशाप.
मेरा और बच्चों की
तरह नामकरण तो नहीं हो पाया
पर लोग मुझे -पगली की बेटी कह कर पुकारने लगे
धीरे-धीरे मैं बड़ी
होती गई और
माँ कमजो़र होती रही
लोगों से जो मिल
जाता
वही खाकर हम दोनों
गुजारा कर लेते
अब लोगों की नज़रें
माँ पर कम
मुझ पर अधिक पड़ने लगी
एक दिन मैं खाने के
लिए कुछ जुटाने निकली
आकर देखा तो माँ के
आस पास भीड़ लगी थी
पता चला कि वो इस स्वार्थी
दुनिया को छोड़ कहीं दूर चली गई
माँ को तो अपने दर्द
से छुटकारा मिल गया
अब मेरा क्या होगा..?
मेरे सामने एक चुनौती
थी
इस दरिंदे समाज से
क्या मैं
खुद को बचा पाऊँगी..?
उनसे लड़ पाऊँगी…?
या फिर माँ की तरह
ढह जाउँगी…..????
**************
महेश्वरी कनेरी
झंजोड़ के रख दिया ....इस कड़वी सच्चाई ने ....
ReplyDeleteकाश! कि ये एक बुरे सपने की कोई रचना हो .......
शुभकामनायें!
यह एक कड़वा सच जिसे पचा पाना बहुत कठिन उससे भी बड़ी त्रासदी लोगो का व्यवहार जिसे देखकर कोई भी शर्मा जाये . सत्य कथन के लिए आज मन नहीं आपको बधाई दूँ मन क्षुब्ध है
ReplyDeleteदर्दनाक ...कटु सत्य उकेरा है आज आपकी रचना ने ...
ReplyDeleteकाश ऐसे लोगों को शोषण की बजाये हमारा समाज संरक्षण दे पाए ....
समाज का रुक्ष पक्ष, मार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteव्यथित कर देने वाली सच्चाई है ........
ReplyDeleteभेडियों की दुनिया है ! दो पल भी सुकून का मिल जाए स्त्री को , वही काफी है...
ReplyDeleteस्तब्ध मनःस्थिति होती है...क्या कहूँ
ReplyDeleteअखंड सत्य बयां करती बेहतरीन मार्मिक रचना, हृदय को छू गई
ReplyDeleteमन को व्यथित करते रचना के भाव ...
ReplyDeleteकटु सत्य बयान करती रचना
ReplyDeleteमन को झंझोडती यथार्थ पूर्ण रचना,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या कहने
आह ! व्यथा से भर दिया..
ReplyDeletebahut hi uadas dukhad sach se bhari rachna .......
ReplyDeleteदी मन बड़ा कमज़ोर होता है...स्वार्थी भी...शायद कायर भी...भगोड़ा भी...
ReplyDeleteऐसी रचना पढ़ना ही नहीं चाहता...
मन रोना नहीं चाहता दी...बिलकुल नहीं...
सादर
अनु
बहुत मार्मिक..आँखें नम कर गई..
ReplyDeleteमहेश्वरी जी बिलकुल आपकी इस रचना को पढ़ते पढ़ते मै खो गया इतने मार्मिक प्रसंग को बहुत ही सुन्दर शिल्प के एक जीवंत प्रस्तुति पर आपकी तारीफ के लिए वाकई शब्द कम पद रहे हैं .........हृदय से आपकी लेखनी को मेरा सादर प्रणाम है |
ReplyDeleteयाद आ गयी मुझे
ReplyDeleteअपने शहर की पगली
एक बार नहीं कई बार
जन्म दिया था उसने
पता नहीं कितनी लाशें
लाशें इसलिये कि पैदा
होती तो थी रहती भी
थी कुछ दिन गोद में
और किसी दिन नाले में
या नदी में डुबो कर
मार डालती थी वो
फिर निकल पड़ती थी
मेरे शहर के दरिंदों की
ओर बेखबर हमेशा की तरह !
एक तीखा व्यंग्य और मार्मिक रचना।
ReplyDeleteसंवेदनशील अभिव्यक्ति..... समाज के दुखद पक्ष को सामने रखती हुयी.....
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कविता
ReplyDeleteसादर
आज 25/09/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद!यशवन्त..
Deleteबहुत मार्मिक दिल को द्रवित करती हुई रचना उस बेटी के लिए बेटी दिवस के क्या मायने होंगे !!
ReplyDeleteबहुत कटु सत्य ...इस समाज की गन्दी मानसिकता का परिचय देती लेखनी ...
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना है महेश्वरी जी ...
ReplyDeleteनिःशब्द करती मार्मिक पंक्तियां।
ReplyDeleteगंभीर चिन्तन से उपजी एक मार्मिक कविता |
ReplyDeleteव्यथित कर देनेवाली रचना..
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक
इस कविता में वह तथ्य है जिसे दुनिया जानती है, मानती है लेकिन उस महिला के हालात बदलने में श्रम नहीं करती है. ग़रीबी पगलाने वाले हालात को ही कहते हैं. उस तक सरकारी विकास योजनाओं को न पहुँचने देने का नाम ही भ्रष्टाचार है.
ReplyDeleteमार्मिक कविता.
बहुत ही संवेदन शील अभिव्यक्ति समाज के कडवे सच को उजागर करती रचना...
ReplyDeleteअंतर्मन तक झंझोरती रचना..!!
ReplyDeleteसुंदर..!!
महेश्वरीजी...नि:शब्द हूँ....आंसू रुकें तो कुछ बोलूँ...समाज ऐसा क्यों है ..इतना क्रूर..इतना निर्दयी..कभी कभी ग्लानी होती है सोचकर की मैं भी उसी समाज का हिस्सा हूँ ..!
ReplyDeleteझकझोर गई यह रचना...मृत संवेदना की दास्ताँ!!
ReplyDeleteअपने को इन्सान समझनेवाले लोग कितनी दरिन्दगी पर उतर सकते है - अच्छा लिखा है !
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील प्रस्तुति. समाज में व्याप्त गंभीर समस्या पर प्रहार है यह रचना.
ReplyDeleteकविता के भाव एवं शब्द का समावेश बहुत ही प्रशंसनीय है। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति...क्या कहा जाये....एक बार ’पगली’ गद्य में यही कुछ दर्शाने का प्रयास किया था...http://udantashtari.blogspot.ca/2010/02/blog-post.html देखियेगा!!
ReplyDeleteकहने के लिए शब्द नही हैं मेरे पास.
ReplyDeleteमूक हूँ,शर्मसार हूँ कि ऐसे समाज का हिस्सा हैं हम.