abhivainjana


Click here for Myspace Layouts

Followers

Tuesday, 28 May 2013

ज़रा अज़मां कर देखिए ...




ज़रा अज़मां कर देखिए


बहुत कुछ बाकी है अभी,ज़रा अज़मां कर देखिए

जिन्दगी के हर रंग को जरा पास जाकर देखिए

अफ़सोस न होगा कभी उम्र के गुजर जाने की

कभी बच्चों के संग बच्चा बन कर तो देखिए

छोड़ खामोशी और तन्हाई के इस आलम को

कभी आसमां को सिर पर उठा कर तो देखिए

अपने दुःख-दर्द को भूल जाना चाहो अगर

तो किसी दुखी को गले से लगाकर तो देखिए

इतनी मासूमियत से कभी खुद को न देखिए

जब भी आईना देखे तो मुस्कुरा कर ही देखिए

खुशबू चमन में फैलाना चाहो अगर कभी

बस एक फूल को ज़रा हँसा कर तो देखिए

***************

महेश्वरी कनेरी 



Sunday, 19 May 2013

हम भी चुनौती बन गए ज़माने के लिए…..( मेरी १००वी पोस्ट )


                   मेरी  १००वी  पोस्ट 

         हम भी चुनौती बन गए ज़माने के लिए…..


 दर्द का सैलाब बन कर उठा

हमें मिटाने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए…..

वक्त की हर चाल हम पर

तिरछी पड़ती रही

हादसे पर हादसे होते रहे

हमें झुकाने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए…..

आँसू पीकर भी हम मुस्काते रहे

खुशी का ज़ज्बा जुटाते रहे

पता था वो तो जि़द्द में बैठे थे

हमें रुलाने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए…..

रास्ते और भी तो हैं

हम तो साथ चले थे सिर्फ

साथ निभाने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए…..

सुना था बंद मुठ्ठी लाख की

खुली तो खाक की

हमने तो मुट्ठी खोली ही नहीं

खुद को भरमाने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए…..

सब कुछ नही मिलता ज़माने में

जो मिला माथे से लगा लिया

बस थोडी सी दुआ चाहिए

जि़न्दगी बिताने के लिए

हम भी चुनौती बन गए

ज़माने के लिए……..

*************

आज मैं अपनी १००वी  पोस्ट  प्रकाशित करते हुए आप सब के प्रति आभारी हूँ..आप सब की 

शुभकामनाएं  प्यार और स्नेह के कारण मुझे ऐसा सुअवसर मिला..आगे भी ऐसे ही अपना स्नेह 

बनाए रखना...


महेश्वरी कनेरी 

Wednesday, 15 May 2013

अनुज सागर..

अनुज सागर


यूँ मौन तपस्वी से

निश्छल अविचल ,हे अनुज सागर

क्यों ठहरे-ठहरे से शान्त पड़े हो

प्रकृति के प्रतिबिंब तुम

मूक ह्रदय से करते अभिनंदन

चंचल चाँदनी खेले उर में

किरणें करती जब आलिंगन

जब मस्त पवन छू कर निकले

तुम सिहर-सिहर खामोश रह जाते

क्यों उछाल नहीं भरते

गहन ह्रदय में क्या तुम्हारे ..तुम जानो

कलुषित मन मेरा जब भी अकुलाए

पास तुम्हारे मैं जाती

देख छबी अपनी ही तुम में

सम्मोहित सी होकर 

मन शान्त हो जाता

*************

*महेश्वरी  कनेरी 

Thursday, 9 May 2013

नहीं आया जीना मुझे ...




 आखिरी कगार पर खड़ी  जिन्दगी कहती है मुझसे 
"सब कुछ तो सीख लिया  तुमनें,पर
जीना न सीख पाई अभी "
माना की, जीना भी एक कला है 
पर  हर कला में हर कोई पारंगत तो नहीं होता ..?
यही सोच-सोच , खुद को समझा लेती थी  मैं 
कई बार खुद को तराशने की भी कोशिश  की थी मैंने
पर ,हर  बार वक्त के  औज़ार मुझे जंक  में डूबे   हुए  मिले 
और कई बार तो  उनकी धार इतनी तेज  और चमकदार होती  
कि  डर कर दुबक जाती थी मैं 
 इसी लिए  कभी खुद को तराश न पाई मैं
और  नहीं आया जीना मुझे 
 तिल -तिल कर मरती रही मैं 
सिर्फ जीने के लिए ......
हां सिर्फ जीने के लिए.....मरती रही मैं ...मरती रही मैं 

**********************
महेश्वरी कनेरी