abhivainjana


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Friday, 27 May 2011

कौन हूँ मैं …?… …

    कौन हूँ मैं …?…  
प्रस्तुत पँक्तियाँ उन नारी जाति को समर्पित है ,जो घिसी पिटी रीति रिवाजों, परंपराओ और बोझिल रिश्तों के बीच कही बिलुप्त सी हो गई हैं ।जीवन के अंतिम दिनों में जब, सब साथ छोड़ जाते हैं,तब वो खुद में खुद को टटोलने की कोशिश करती हैं ,पर तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है… । इस लिए…. स्वयं को जाने….... स्वयं को पहचाने…….
   
       कौन हूँ मैं …?…
जीवन तो जीया है मैंने
लेकिन कब वो अपना था….
रिश्तों के टुकड़ों में,
सब बँटा- बँटा  था ।
कभी रीति और रिवाज़ों
 की ओढ़ी चुनरी…..
कभी परंपराओ का
 पहना जामा…..
आँखों में स्वप्न नहीं
 समर्पण रहता….
रिश्तों का फर्ज निभाते
जीवन कब बीत गया …
दायित्व के बोझ तले
बरबस मन, ये कहता……
कौन हूँ मैं …?… कौन हूँ मैं ………….?....
 

19 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है..अच्छा लगा .आभार

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  2. पहना जामा…..
    आँखों में स्वप्न नहीं
    समर्पण रहता….
    रिश्तों का फर्ज निभाते
    जीवन कब बीत गया
    बहुत सुंदर और गहन अभिव्यक्ति लिए हैं पंक्तियाँ..

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  3. रिश्तों का फर्ज निभाते
    जीवन कब बीत गया …
    दायित्व के बोझ तले
    बरबस मन, ये कहता……
    कौन हूँ मैं …?… कौन हूँ मैं ... yun hi pahchaan ho jati hai gum

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  4. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  5. बहुत सटीक प्रस्तुति...नारी कब सिर्फ़ नारी बन कर जी पायी है..संबंधों, रिश्तों और रिवाजों की जंजीरें हमेशा उसके पांव की बेडियाँ बनी रही हैं..बहुत सुन्दर

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  6. बहुत सुन्दर लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बेहतरीन प्रस्तुती!

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  7. कभी रीति और रिवाज़ों
    की ओढ़ी चुनरी…..
    कभी परंपराओ का
    पहना जामा…..
    आँखों में स्वप्न नहीं
    समर्पण रहता….

    ये पंकितयां बहुत अच्छी लगीं.
    नारी को स्वयं को पहचानने का बहुत अच्छा सन्देश आपने दिया है.

    सादर

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  8. सच में ग्रामीण सामाजिक परिवेश में आज भी महिला का जीवन केवल दूसरों के लिए जीना ही होता है ...अपना कुछ भी नही खुद कि कोई पहचान नही ..एक दर्दनाक सच है यह...जो आपने सामने रखा है.

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  9. माहेश्वरी कानेरी जी नमस्कार -सुन्दर रचना एक नारी कर्म क्षेत्र में अपना दायित्व निभाते कब जिन्दगी की इन सभी सीढ़ियों को पार कर जाती है पता ही नहीं चलता -क्या है उसका अस्तित्व -
    निम्न पंक्तियाँ सुन्दर बन पड़ीं
    रिश्तों का फर्ज निभाते
    जीवन कब बीत गया …
    दायित्व के बोझ तले

    शुक्ल भ्रमर ५

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  10. जीवन कब बीत गया …
    दायित्व के बोझ तले
    बरबस मन, ये कहता……
    कौन हूँ मैं …?… कौन हूँ मैं ………….?....

    बहुत सुंदर रचना ...... मन को उद्वेलित करता प्रश्न .....

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  11. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना!

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  12. सत्य का सटीक चित्रण कि्या है।

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  13. "रिश्तों का फर्ज निभाते
    जीवन कब बीत गया …"

    नारी जीवन का यथार्थ चित्रण - बहुत सुंदर

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  14. जीवन कब बीत गया …
    दायित्व के बोझ तले
    बरबस मन, ये कहता……
    कौन हूँ मैं …?
    बहुत सुंदर रचना,
    - विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  15. स्त्री मन की आत्म टटोलती ... खुद को खोजती ... अपना परिचय ढूँढती है ये रचना ...

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  16. जीवन कब बीत गया …
    दायित्व के बोझ तले...
    फिर भी ना समय मिला खुद को जानने को कौन हू मै ...कौन हू मै ?

    खुद को धुडती मै .... बहुत सुन्दर रचना

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  17. बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन......

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  18. आँखों में स्वप्न नहीं
    समर्पण रहता….
    रिश्तों का फर्ज निभाते
    जीवन कब बीत गया …

    सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति

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